लेखक और पाठक के कैनवास पर ‘यूं भी’ का मंचन

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भोपाल. स्तुति तिवारी
रंगायन में बात.. नाटक यूं भी की. जो राजधानी भोपाल के शहीद भवन में मंचित किया गया. यह पहल इंप्रिंट कल्चर सोसायटी के कलाकारों की प्रस्तुति थी. मैक्सिम मौर्की व तान्हाजी की कहानी को नाट्य रूपांतरण अखिलेख अखिल ने किया था। परिकल्पना और निर्देशन तान्हाजी बाबले का था। नाटक में संस्कृति मंत्रालय का साथ था।
नाटक यूँ भी कहता है यूँ भी जीना है या हूँ ही जीना है, यहां नाटक में ये बताने की कोशिश है कि एक लेखक जब कुछ लिखता है तो उसके पीछे उसके अंतर मन में क्या चल रहा है, क्या वो खुश है या नाखुश है? क्या वो किसी को कुछ बताना चाहता है या खुद को. आम जनता को क्यों ये सब कहना बताना चाहता है? क्या अपने मन की संतुष्टि के लिए या जनता के मन के लिए. ऐसा लिखना क्यों जरूरी है? शायद इसलिए की जो नहीं लिखते वो भी इस बात पर सोचे और जो लिखते वो भी सोचे की सच क्या है और इसी सच की तलाश में या कहे ऐसे ही कई सारे सवालों और उनके जवाबों को गढ़ता ये नाटक है.


दो पात्र लेखक और पाठक
नाटक की कहानी में दो पात्र है, एक लेखक और दूसरा लेखक का पाठक. लेखक अपनी एक कहानी गोष्ठी खत्म कर घर की तरफ जा रहा है, तभी उसका पाठक जो एक अति उत्साही पाठक है. लेखक को रोकता है और ये जानना चाहता है, कि उसके प्रिय लेखक ने जो कहानी लिखी और लोगों को सुनाई वो कैसे गढ़ी. मतलब उसकी उपज कहां से हुई, उसकी क्या कोई कीमत चुकानी पड़ी. तो लेखक उस पाठक का जवाब देता है, लेखक फिर जाने को होता है तो पाठक फिर एक और सवाल पूछता है. बस इसी सवाल जवाब के बीच एक लेखक और और पाठक की कहानी घूमती है.

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