‘आंदोलन किसानों के नाम देश को अस्थिर करने का षड्यंत्र’
भूपेन्द्र शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार
राष्ट्रीय किसान आयोग की रिपोर्ट (स्वामीनाथन) 2006-7 में प्रस्तुत कर दी गई थी। तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। सरकार ने रिपोर्ट की अनुशंसाओं को राष्ट्रीय किसान नीति 2007 में शामिल नहीं किया। वर्ष 2010 में तत्कालीन खाद्य एवं उपभोक्ता राज्यमंत्री केवी थामस ने राज्यसभा में कहा था कि एमएसपी की अनुशंसा कृषि लागत एवं मूल्य आयोग के मानकों के साथ आवश्यकता के आधार पर विचार करते हुए की जाती है। आयोग ने कृषि लागत पर कम से कम 50 प्रतिशत की वृद्धि का सुझाव दिया है, इससे बाजार व्यवस्था बिगड़ सकती है। इसलिए सिफ़ारिशों को स्वीकार नहीं किया है। यह हास्यास्पद है कि अब राहुल गांधी केंद्र में कांग्रेस सरकार आने पर एमएसपी की अनुशंसा लागू करने की गारंटी दे रहे हैं।
वास्तविकता में देखा जाए, तो स्वामीनाथन रिपोर्ट में एमएसपी को छोड़कर ऐसी कोई अनुशंसा नहीं है, जिसे किसानों के हितार्थ विशिष्ट कहा जाए। वैसे भी केंद्र एवं राज्य सरकारें सर्वाधिक उदार किसी के लिए हैं, तो वे किसान ही हैं। वर्तमान में किसानों के लिए विभिन्न प्रकार की लगभग 43 योजनाएं चल रही हैैं, जो उनकी विभिन्न आवश्यकता एवं समस्याओं का निराकरण करती हैं तथा आपदकाल में उन्हें सुरक्षा की गारंटी देती हैं।
इन कथित किसानों की मांगें, तो इस तरह की हैं, जैसे देश सिर्फ़ उन्ही के लिए है। ये कथित किसान चाहते हैं कि सरकार इनके हर अनाज को उत्पादन लागत की डेढ़ गुना क़ीमत पर क्रय करे और इसे क़ानून का रूप दिया जाए। अर्थशास्त्री एवं वाणिज्य विशेषज्ञों के अनुसार यह ऐसी मांग है, जो किसी भी रूप में बाज़ार तथा अर्थ व्यवस्था के दृष्टिकोण से उपयुक्त नहीं है। इससे जहां देश की अर्थ व्यवस्था बिखर जाएगी, वहीं बाज़ार गड़बड़ा जाएगा। यदि यह संभव होता, तो कांग्रेस ने अपने 8 साल के सत्ता काल में क्यों नहीं किया।
फिर आंदोलनकारियों के रंग-ढंग, वेशभूषा, भाषा, एक्शन, रिएक्शन एवं गतिविधियों से देश की जनता ( देश विरोधियों को छोड़कर) समझ रही है कि वास्तविक किसानों से इनका कोई वास्ता नहीं है और इनके उद्देश्य देशहित में बिल्कुल नहीं हैं। किसानों के बहाने विदेशी टूलकिट पर काम कर रहा यह भीड़ तंत्र सिर्फ़ देश में चुनाव पूर्व अराजकता निर्मित करना चाहता है, जिससे चुनाव परिणाम प्रभावित हों।
मूल किसानों का कहना है कि इस समय खेतों में गेहूं, सरसों, चना, गन्ना, अरहर, जौ,आलू, मसूर, अलसी, मटर आदि रबी की प्रमुख फ़सलें हैं, जिनमें अभी पानी दिया जा रहा है। देश का कोई भी किसान अपनी पली-पकी फ़सल छोड़कर देश में अशांति एवं अराजकता फ़ैलाने वाली इस टीम का हिस्सा कैसे बन सकता है।
देश की जनता ने वर्ष 2020-21 में आंदोलन की आड़ में इन कथित किसान आंदोलनकारियों का घृणित सियासी रंग देखा, प.बंगाल विधानसभा एवं अन्य चुनाव प्रचारों में भी वे ही पात्र सक्रियता के साथ देखे गए। अब लोकसभा चुनाव से पहले फिर किसानों के नाम पर वही उपद्रव आरंभ कर दिया है। भले ही केंद्र सरकार ने किसी भी कारण संसद में पास किसान हितैषी क़ानूनों को वापस ले लिया, किंतु उस आंदोलन का भयावह, विद्रोही रूप देश कभी नहीं भूलेगा। वर्तमान आंदोलन की थीम भी ठीक उसी तर्ज़ पर है। इस टीम की मंशा भी उसी तरह देश की आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्था को बिगाड़ना है। किसानों के नाम पर हुड़दंग मचाने वाले इस भीड़ तंत्र के आगे एक बार सरकार के झुकने से देशविरोधी तत्वों को लग रहा है कि आंदोलन के नाम सड़कों पर अराजकता फ़ैला कर या शहरों को बंधक बना सरकार से कुछ भी कराया जा सकता है।
कृषि राज्य सूची का विषय है। आंदोलनकारी टीम के लोगों के वक्तव्यों के अनुसार पंजाब सरकार हर सूरत में उनके साथ है! वहीं इस कथित किसान आंदोलन के बड़े नेता जगजीत सिंह ढल्लेवाल ने कहा है कि ‘राम मंदिर निर्माण से मोदी का ग्राफ बहुत ऊपर चढ़ गया है। हमारा लक्ष्य मोदी के ग्राफ को नीचे गिराना है। … और अब इसके लिए हमारे पास समय बहुत कम बचा है।’
इसमें संदेह नहीं कि केंद्र में एनडीए सरकार आने के बाद से देश में तमाम तरह से अशांति का वातावरण पैदा करने की स्थितियां निर्मित करने के प्रयास होते रहे हैं। मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार शाहीनबाग आंदोलन के पक्ष में पंजाब में बड़ी जनसभाएं हुईं, पंजाब से कई जत्थे शाहीनबाग की महिलाओं को सपोर्ट करने दिल्ली गए। जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाए जाने के विरोध में और कश्मीरियों के पक्ष में प्रदर्शन हुए। पंजाब में उमर खालिद के विरुद्ध कार्रवाई के विरोध में भी आवाजें उठीं।तिरंगा यात्रा, ‘वंदे मातरम्’, ‘भारत माता की जय’ के नारों पर पंजाब में विरोध हुआ। विगत दो वर्ष में खालिस्तान समर्थक अमृतपाल की पंजाब में घुसपैठ ने पूरे राज्य और उसके बाहर अशांति पैदा की है, वहीं पंजाब, हिमाचल प्रदेश में खालिस्तान से जुड़ी घटनाएं बढ़ी हैं।
आंदोलनकारी टीम में शामिल एक 70 साल का वृद्ध मीडिया से कहता है कि मोदी सरकार को मांगें नहीं मानना हैं, तो हमें पाकिस्तान भेज दें, हम पाकिस्तान से संधि कर लेते हैं। इसी वृद्ध के पीछे खड़ा युवा लोहे का बड़ा सा हथौड़ा ऊपर उठाते हुए बोलता है- मोदी आजा दो-दो हाथ हो जाएं! टीम में खुलेआम खालिस्तानी झंडे लहराए जा रहे हैं और भारतीय झंडे को नालों में फेंका जा रहा है! टीम के साथ देशी, विदेशी शराब की बोतलों से भरे कार्टून हैं। यंत्रों, हथियारों से लैस चौपहिया वाहनों की भरमार है!
स्वामीनाथन अनुशंसाएं तो इन कथित किसानों के आंदोलन का सिर्फ़ आधार हैं, इनकी असल मांगें देश की जनता जागरूक रहना होगा कि आखिर देश के विरोध में क्या खेल खेले जा रहे हैं! इनकी कुछ मुख्य मांगें देखिए- लाल किले पर खालिस्तानी झंडे फ़हराने और हिंसात्मक तांडव मचाने वाले देशद्रोहियों और 13 दिसंबर, 2023 को संसद में आतंकवादी हमले की बरसी के दिन लोकसभा में कूदकर गैस का धुआं छोड़नेवाली गैंग में शामिल एवं संसद के बाहर गैस छोड़ते हुए नारेबाज़ी करने वाली नीलम आजाद को रिहा करें। पिछले आंदोलन के हिंसक उपद्रवियों को रिहा करें।
60 साल से अधिक उम्र के किसानों को 10,000/- रुपए प्रतिमाह पेंशन दें। मनरेगा के तहत 700/- रुपए मजदूरी दें। किसान, मजदूरों के ऋण पूरी तरह माफ़ करें। भारत विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) से हटे और सभी मुक्त व्यापार समझौतों पर रोक लगे। यानी केंद्र सरकार इन कथित अन्नदाताओं की इच्छाओं के अनुरूप काम करे और चले।
निःसंदेह, प्रजातांत्रिक देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नागरिकों का मौलिक अधिकार है, किंतु उसके दायरे भी बताए गए हैं, यह लोगों को ध्यान में रखना चाहिए। सरकारों का आना-जाना सार्वभौमिक है, लेकिन राष्ट्र की व्यवस्था और स्थिरता को बिगाड़ने के प्रयासों को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है।
(यह लेखक के अपने निजी विचार हैं)