Article : आयुर्वेद-एलोपैथी द्वंद्व पुराना है

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@ भूपेन्द्र शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार
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Ayurveda-Allopathy : आयुर्वेद-एलोपैथी का द्वंद्व प्राचीन समय से चला आ रहा है। आधुनिक संस्कृति की अवधारणा आरंभ से ही आयुर्वेद एवं धर्म को जोड़कर देखती है। 16वीं सदी में पुर्तगाली व्यापार करने के लिए भारत आते थे।‌ पुर्तगालियों को भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद की न तो जानकारी थी एवं न ही उन्होंने इसमें रुचि और विश्वास दिखाया। वे अपने साथ डॉक्टर भी लाते थे। इन डॉक्टरों ने ही भारत में पहली बार ऐलोपैथी पद्धति से उपचार शुरू किया। इससे पहले भारत में रोगों का उपचार युगों से आयुर्वेद पद्धति से ही होता रहा था।

अंग्रेज़ों की मंशा थी आयुर्वेद का समूल नाश

ब्रिटिशकाल में अंग्रेजों ने भारतीय शिक्षा एवं संस्कृति को पूर्णतः मिटाने के प्रयास किए थे। उन्होंने भारत में एलोपैथी चिकित्सा उपचार को बढ़ावा देने का विस्तृत अभियान चलाया। भारतीय‌ आयुर्वेदाचार्य एवं वैद्यों ने अंग्रेजों के अभियान का घोर विरोध किया, जिसे अंग्रेजों ने दबा दिया। सन 1785 में अंग्रेजों ने बंगाल, मद्रास और बॉम्बे प्रेसीडेंसी में मेडिकल विभाग का गठन किया। वहीं 1869 में इन तीनों मेडिकल विभागों को मिलाकर इंडियन मेडिकल सर्विस की स्थापना की, जिसका लक्ष्य भारत में एलोपैथिक चिकित्सा को बढ़ाना तथा जन-मानस में इसके प्रति जागरूकता पैदा करना था। अंग्रेज़ों ने आयुर्वेद चिकित्सा को अवैज्ञानिक और एक धार्मिक विश्वास भर माना। ब्रिटिश काल में भारत में एक-एक कर कई बीमारियां फैलीं, जिसके कारण ऐलोपैथी को तेजी से प्रसार मिला। इस प्रकार भारत में न केवल आधुनिक चिकित्सा उपचार बढ़ा, बल्कि तभी से आयुर्वेद और ऐलोपैथी के बीच द्वंद्व शुरू हो गया, जो निरंतर चल रहा है। कोरोना काल में भी यह चर्चा का मुद्दा रहा था कि आयुर्वेद और एलोपैथी में कौन-सी पद्धति कारगर है। इस तरह ऐलोपैथी- आयुर्वेद में विरोधाभास की‌ स्थितियां आज भी बनी हुई हैं।

ऐलोपैथी में भी जितने गुण, उतने अवगुण

आयुर्वेद चिकित्सा गंभीर रोगों में, आकस्मिक उपचार में या‌ एक्सीडेंटल मामलों में कितनी कारगर है और कितनी नहीं, यह गोपनीय तथ्य नहीं है। सभी जानते हैं। किंतु आयुर्वेदिक दवाएं सामान्यतः किसी भी‌ तरह एवं किसी भी रूप‌ में घातक नहीं होती हैं। वहीं एलोपैथी की एक‌ भी दवा तथा किसी भी रोग का उपाचार ऐसा नहीं, जिसमें जीवन को ख़तरा नहीं हो।
आयुर्वेद की दवाओं के कोई साइड इफेक्ट नहीं होते, जबकि ऐलोपैथी में लगभग सभी दवाइयों के साइड इफेक्ट की संभावना है। एलोपैथी के दुष्प्रभाव का ताज़ा एवं गंभीर उदाहरण कोरोना के समय भी सामने आया। कोराना प्रभावितों ने डॉक्टर की स्वीकृति बिना अधिक दवा ली, तो उन्हें ब्लैक फंगस रोग हुआ और उसके कारण लोगों की मृत्यु भी हुई। स्पष्ट है, एलोपैथी उपचार रामबाण तो है, लेकिन जानलेवा मिसाइल भी है। एलोपैथी उपचार के दौरान भूल से, चूक‌ से, डॉक्टर की नासमझी से मरीजों की जान चली जाने की घटनाएं आम हैं।

कोरोना काल में बाबा के बयान से बिगड़ी बात

कोरोना के समय पूरे विश्व में त्राहिमाम मचा हुआ था। यथासंभव हर स्तर पर वैद्य, डॉक्टर, मेडिकल साइंस सभी प्रयासरत थे महामारी से जनता को बचाने के लिए। दुनिया में लगातार मौतें हो रही थीं। कोरोना वायरस सभी के लिए नया मामला था। ऐसे में कोरोना के उपचार और उपचार पद्धति के संदर्भ में बाबा ने बिना सोचे-समझे आधुनिक चिकित्सा विज्ञान पर दंश कटाक्ष कर दिया, जो निश्चित रूप से सही नहीं कहा जा सकता। यद्यपि बाबा ने अपना बयान वापस ले लिया था, किंतु ‘इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ ने तब इस पर कड़ी नाराजगी व्यक्त की। सच यह है कि बाबा का उस विवाद से अभी तक पीछा नहीं छूटा है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन तब से हाथ धोकर बाबा के पीछे पड़ा है, जो पतंजलि के लगभग हर उत्पाद पर सवाल खड़े किए जा रहे हैं।

एलोपैथी में भी आयुर्वेदिक औषधीय पौधों की मांग

भारतीय आयुष बोर्ड के अनुसार विश्व में औषधीय पौधों की व्यावसायिक मांग निरंतर बढ़ रही है। औषधीय पौधों से कॉस्मेटिक एवं हर्बल उत्पाद बनाए जा रहे हैं। केंद्रीय आयुष मंत्रालय की निगरानी में अब इस दिशा में सर्वे एवं अध्ययन चल रहे हैं,‌ ताकि भारतीय प्राचीन चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद दुनिया को स्वीकार्य हो। आयुष मंत्रालय के अनुसार वर्तमान में भारत विश्व के 35 से अधिक देशों को औषधीय पौधों से निर्मित कच्चा माल निर्यात कर रहा है।
आयुर्वेद एक्सपर्ट्स बताते हैं कि भारतीय औषधियों द्वारा वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) के वैज्ञानिकों ने राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय अध्ययनों में लाभप्रद मानी गईं डायबिटीज़, किडनी और सूखी खांसी जैसी बीमारियों की दवाएं बाजार में उपलब्ध कराई हैं।

टार्गेट पर बाबा हैं या आयुर्वेद!

बाज़ार में बिकने की हर वस्तु श्रेष्ठता का दावा करती है और बेचने वाला उसका समर्थन करता है। जबकि स्तरीय एवं ताथ्यिक बात वही होती है, जो बाबा रामदेव तथा पतंजलि उत्पादों के बारे में उठाई और उड़ाई जा रही हैं। ऐसा लगता है कि बीते कुछ वर्षों से बाबा‌ रामदेव को टार्गेट बनाया जाता रहा है। पतंजलि के घी, आंवला, ऐलोवेरा, शहद, सरसों तेल आदि उत्पादों पर विवाद उठे। इसी तरह कोरोना काल में बाबा द्वारा ‘इम्यूनिटी बूस्टर’ के रूप में प्रचारित की गई दवा कोरोलिन भी विवाद का विषय बनाई‌ गई। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन ने कहा कि बिना जांच-परीक्षण किसी दवा को कोरोना‌ की दवा के रूप में प्रचारित करना भारतीय लोगों का अपमान है। इसके साथ ही बाबा रामदेव और पतंजलि को लेकर कोई न कोई विवाद निरंतर बाजार में और संचार माध्यम पर चलते रहे हैं। बाबा ने कहा कि हमने न्याय और द्वेष भावना से प्रेरित होकर पतंजलि को टार्गेट बनाने वालों को सबक सिखाने के लिए कानूनी नोटिस भेजे हैं।

क़ानून में समानता भी जरूरी

कानून से बढ़कर कोई नहीं है। यदि पतंजलि का कोई उत्पाद सत्य से परे दावा करता है, तो उसे नियमों का अनुपालन करने के लिए न्यायालय बाध्य करेगा ही। … किंतु ‘इंडियन मेडिकल एसोसिएशन’ द्वारा निरंतर केवल बाबा रामदेव को ही क्यों निशाना बनाया जा रहा है। बाज़ार के 90 प्रतिशत उत्पादों के वादों में ऐसी बारीकियां होती हैं, जिन्हें हर ग्राहक न पढ़ सकता है और न ही समझ सकता है। पूरा बाजार ऐसे उत्पादों से भरा पड़ा है, जिनके स्तरीय एवं तथ्य हर किसी के पल्ले नहीं पड़ते। उपभोक्ता को बाजार में निरंतर ठगा जाता है। आप छोटे बच्चों के फूड, प्रोटीन, स्वादिष्ट वस्तुओं के अलावा जिम जाने वाले युवाओं के लिए बाज़ार में मिल रहे प्रोटीन युक्त उत्पादों का भंडार है, लेकिन उनके उपयोग के दुष्परिणाम मीडिया एवं अखबारों के समाचारों में देखिए। कहां हैं इंडियन मेडिकल एसोसिएशन? ‌कहां है न्यायपालिका? कानून का सम्मान सबको ‌करना होगा, किंतु कानून सबके लिए समान होगा, यह कौन सुनिश्चित करेगा?

अंग्रेज़ों के बनाए आयुर्वेद-विरोधी क़ानून आज भी लागू

सन 1890 के दशक में देश को प्लेग फैला था। उस समय आयुर्वेद चिकित्सकों ने आगे बढ़कर रोगियों का उपचार किया। ब्रिटिश सरकार को यह पसंद नहीं आया। सन 1897 में अंग्रेजी सरकार ने भारत में आयुर्वेद चिकित्सा विरोधी कानून महामारी अधिनियम (1897 महामारी अधिनियम तथा 1954 मैजिक रेमेडी एक्ट) लागू किया। पिछले 27 वर्ष से भारत में औषधीय उपचार का प्रचार-प्रसार कर रहे आचार्य मनीष उक्त आयुर्वेद चिकित्सा विरोधी कानूनों को निरस्त या संशोधित करने की आवाज उठा रहे हैं। मनीष कहते हैं कि भारत अभी भी ब्रिटिश औपनिवेशिक मानसिकता में जी रहा है। यह चिंतन का विषय है कि जिस देश में हजारों वर्ष पूर्व आयुर्वेद जन्मा वहीं हम आज भी 1897 महामारी अधिनियम जैसे कानूनों के अधीन हैं, जो आयुर्वेद और वैद्यों पर प्रतिबंध लगाता है।
वे बताते हैं कि ‘मैजिक रेमेडी एक्ट’ हमको इन प्रोटोकॉल के बारे में बात करने की अनुमति नहीं देता है। एक आयुर्वेदिक चिकित्सक किसी भी बीमारी पर स्वतंत्र रूप से बात नहीं कर सकता है।

एलोपैथी-आयुर्वेद का अपना-अपना महत्व

आयुर्वेद चिकित्सा पद्धति की उत्पत्ति का सही समय बता पाना संभव नहीं है। लंका युद्ध में जब लक्ष्मणजी मूर्छित हुए, तो उपचार के लिए वैद्यराज सुखेन को बुलाया था, जिन्होंने मंदार पर्वत से कोई बूटी मंगाई थी। कलयुग में आयुर्वेद के प्रथम आचार्य अश्विनी कुमार हैं, जिन्होने दक्ष प्रजापति के धड़ में बकरे का सिर जोड़ा था। वहां से श्रृंखला चलकर चरक और सुश्रुत तक पहुंची। वहीं एलोपैथी की उत्पत्ति 2400 वर्ष पूर्व हुई। 400 ईसा पूर्व एथेंस निवासी हिप्पोक्रेट्स एलोपैथी के जनक हैं। दोनों चिकित्सा पद्धतियों का अपना-अपना महत्व है। दोनों की जनसेवा यात्रा लंबी रही है। समय, काल एवं परिस्थितियों के अनुसार परिवर्तन स्वाभाविक है। दोनों पद्धतियों की नीयत प्राणीमात्र की सेवा तथा उनका स्वास्थ्य और जीवन बचाना है। कौन-सी पद्धति अच्छी है एवं कौन सी नहीं, यह सोच ग़लत है। सुधार और विकास की संभावना दोनों पद्धतियों के लिए हैं, जो अनवरत हमेशा होते रहते हैं। ‘कल किसने देखा है’। जिस चिकित्सा पद्धति की जो सामर्थ्य है, वह पूर्ण एहतियात के साथ जनसेवा में लगाती है। हम सरकार के उन प्रयासों की प्रशंसा करते‌ हैं, जिनके अनुसार दोनों पद्धतियों को मिलकर जनसेवा करने के अवसर निर्मित किए जाने की योजना है।

लेखक : तीन दशक से अधिक समय तक पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। देश के नामी अखबारों में कॉलम राइटर हैं।

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