वटवृक्ष : बागवान की किताब के उलटते-पलटते पन्ने, किरदारों का बदलाव
अजय तिवारी
किताबों की अलमारी में एक किताब पुरानी थी.. लेकिन जिस सलीके से रखी थी, उससे उसकी अहमियत समझ आ रही थी। किताब उठाकर पढ़ना चाहा। कवर पेज विहीन थी, लेखक का भी पता नहीं चल रहा था। बाहर निकाला पन्नों को उलट पलट कर देखा। हर पन्ने में कहने के साहस का अहसास भरा था। किताब पढ़ना शुरू कर दी, कई पन्ने पढ़ने के बाद एक पन्ना गायब था किताब से। जो पढ़ चुका था, गायब बनने के कारण भटकाव सा आ गया। उसे पन्ने को छोड़कर पढ़ा, गायब पन्ना भले पहेली था, लेकिन बहुत कुछ समझ में आना लगा था। .. बहुत कुछ समझा, लेकिन फिर एक और पन्ना गायब मिला। लगा पहले गायब पन्ने की तरह इस पन्ने को भी छोड़कर किताब पढ़ लूं। फिर लगा यदि इस तरह आगे भी पन्ने गायब मिले तो बेकार हो जाएगा किताब का पढ़ना। सोच जब पन्ने गायब थे, ‘बागवान’ ने किताबों को सलीके से क्यों रखा था? हो सकता है, सोचा होगा किताब कोई तो पढ़ेगा।
बिना शीर्षक की किताब के लेखक का नाम बूझने की जिज्ञासा बढ़ने लगी थी, क्योंकि जितने पन्ने पढ़ने को मिले थे। उन पन्नों में सेवा की इबारत थी, दूसरों के लिए जीने की सीख थी, एक आदर्श जीवन दर्शन सामने रखने वाले थे। किताब में बहुत से किरदार थे, जो उज्ज्वल सोच के साथ जीते नजर आ रहे थे। जज्बा भरने वाली थी उनकी भूमिका। भूमिका से निष्कर्ष तक पहुंच जाता था, लेकिन कुछ पन्नों को पढ़ने के बाद किरदारों के स्वभाव अचानक बदलना हैरान कर देता था। सोचा ‘बागवान’ से ही जाकर पूछ लूं… आपने तो पढ़ें होंगे गायब पन्ने।
जाकर बैठ गया, ‘बागवान’ के पास। कुछ देर शांत रहने के बाद पूछा। आदरणीय आपके किताबों के संग्रह में सारी किताबें बिल्कुल ठीक हैं, यह किताब क्यों रखी, जो पुरानी हो गई है, न तो किताब का नाम पता लग रहा है न किसने लिखा है यह पता लग रहा है। ‘बागवान’ ने कहा जो पन्ने गायब हैं, वह मुझ से जुड़े थे, बहुत कुछ स्याह था। उनमें इसलिए हटा दिए। वह पन्ने रहने दिए जो मेरे किरदार को उज्ज्वल बनाने थे। वर्तमान, भूतकाल और भविष्य हर शख्स के सामने सवाल ही होते हैं। एक ही सवाल के कई जबाव होते हैं, लेकिन किसके लिए कौन सा जबाव हो, यह उसे तय करना होता है। कई बार भूतकाल के दृश्य वर्तमान को डराते हैं, भविष्य की चिंता भूतकाल के दृश्यों के कारण वर्तमान में समझौता करने का विवश कर देती है।
यह विवशता की किताब है। किताबों के विशाल और भव्य संग्रह में इसलिए मौजूद है, क्योंकि आईना है सारी किताबों के लिए। वह किताबें खुद को तो देखती है इस किताब में साथ अपने आसपास की चीजों का बिंब भी देखती है। आईना में कुछ बिंब को देखकर गौरव से भर जाती है, कुछ से शर्मिंदा होती हैं। आईना छूट नहीं बोलता, इस कुछ छिपता नहीं उससे। बागवान बहुत कुछ कहना चाहते थे, लेकिन बहुत कुछ छिपाना भी। इसलिए गहरी चुप्पी साथ ली।
कुछ देर शांत रहने के बाद मैंने कहा, चलो किताब तो मैं पूरी पढ़ूंगा, जो कुछ समझ सकूंगा, समझूंगा। हो सकता है मेरी समझ सच्चाई तक नहीं पहुंच सके, लेकिन एक बात समझ नहीं आ रही है। एक किरदार को पूरे बगीचे की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है। लेकिन ‘बागढ़ ही खेत खा रही है’ कहकर बगीचा छीन लिया जाता है। कह दिया जाता है, बगीचे में मत आना। बहुत कुछ घटता है। न जाने क्या-क्या कह दिया था बगीचा छीनते समय, लेकिन बाद में उसकी वापसी समझ नहीं आई।
मेरी बात पर ‘बागवान’ ने कहा, किताब अहम है, रखी है। छोड़ो पूरी पढ़कर क्या करोगे, वहीं रख दो। कुछ बातें जग जाहिर होती हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से नहीं कही जातीं। किताब का लेखक कई बार अपना जीवन लिखता है, लेकिन बहुत कुछ कांट छांटकर। मेरे बारे कोई क्या कहेगा, सोचकर विषय को बदल देता है। जब वह ऐसा करता है तो किताब के कई किरदार बदले-बदले नजर आते हैं। बदलाव में उनकी विवशता साफ नजर आती है।