देश की संवैधानिक शक्ति की परीक्षा न लें

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  • भूपेन्द्र शर्मा,

चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर सांसद कंगना राणावत के साथ महिला सुरक्षाकर्मी द्वारा की गई अभद्रता का परिणाम जो भी हो, यह बाद में पता चलेगा, किंतु इस घटना ने गंभीर सामाजिक परिदृश्य पैदा किए हैं, जो चिंतनीय है। इस शर्मनाक घटना से स्पष्ट रूप से प्रमाणित हो गया कि बड़ी संख्या में देश के लोगों को क़ानून का भय नहीं है और वे भारतीय न्याय व्यवस्था एवं संविधान में आस्था नहीं रखते‌ हैं।
स्वाभाविक है जिन्होंने महिला सुरक्षा गार्ड को दोषी माना उन्होंने उसके कृत्य एवं क़ानून के नज़रिए से निष्पक्षता के साथ अपनी प्रतिक्रियाएं दीं। सत्य तो‌ सत्य ही होता है। वहीं यह हैरत की बात थी कि सुरक्षा गार्ड के पक्ष में बोलने वालों का तांता लग‌ गया। सिपाही को सही एवं निर्दोष ठहराने के लिए जिन लोगों ने अपने संविधान विरोधी जो विचार व्यक्त किए, उनसे स्पष्ट हो रहा है कि कुछ लोगों को वैयक्तिक रूप से कंगना राणावत से द्वेष है, तो कुछ को भाजपा से बैर है। वहीं, अधिकतर लोगों की प्रतिक्रियाओं से लगा कि उनकी भारतीय संविधान में कोई आस्था नहीं है। उनका न देश से कोई लेना-देना, न देश के क़ानून से। सुरक्षा गार्ड ने जो किया वह सही किया। इनमें कई‌ चर्चित व्यक्ति और संगठन भी शामिल हैं। इसके इतर ‘करेला और नीम चढ़ा’- ‘कोई ‌महिला सुरक्षा गार्ड को पुरस्कार दे रहा है। कोई शाॕल-श्रीफल उढ़ाकर सम्मान कर रहा‌ है। कोई सिख संगठन उसके परिजनों का सम्मान करने घर पहुंचा और परस्पर बधाइयां दे रहे‌ हैं। कोई उसे अच्छे वेतन पर नई नौकरी दिलाने की ग्यारंटी दे रहा है।
घटना के संदर्भ में एक राष्ट्रीय चैनल ने किस तरह ख़बर दी थी, उसका हास्यास्पद मजमून देखिए – ‘कंगना रनौत का विवादों से पुराना नाता रहा है। अब चंडीगढ़ एयरपोर्ट पर कथित रूप से पड़े थप्पड़ के चलते एक बार फिर एक्ट्रेस सुर्खियां बटोर रही हैं। एयरपोर्ट पर सिक्योरिटी चैक के दौरान सीआईएसएफ की सिपाही ने उन्हें चांटा मारा। यहां एक्ट्रेस को महिला जवान से लड़ाई करते देखा जा सकता है।’ जबकि मीडिया वालों को विषय एवं घटना की प्रकृति के अनुसार ख़बर लिखना चाहिए। लाखों लोगों द्वारा संवैधानिक रूप से चयनित एक सांसद के साथ सार्वजनिक स्थल पर किसी सरकारी सुरक्षा गार्ड द्वारा किए गए आपराधिक कृत्य की ख़बर लिखने का यह तरीका नहीं होता। यह कोई बॉलीवुड का ‘रोचक’ समाचार नहीं था!


कंगना राणावत से परस्पर मनमुटाव होने के बावजूद प्रसिद्ध अभिनेत्री शबाना आज़मी ने चिंता व्यक्त करते हुए बेबाकी से कहा- ‘यदि सुरक्षाकर्मी क़ानून को अपने हाथ में लेने लगेंगे, तो हम में से कोई भी सुरक्षित नहीं रहेगा।’


घटना के बाद कंगना राणावत ने भी कहा कि ‘पलट कर मार तो मैं भी सकती थी, मगर उसने वर्दी पहनी थी। फ़ौजी का अपमान मेरे संस्कार में नहीं था। ‘
घटना का कारण सुरक्षा गार्ड ने कंगना राणावत द्वारा की गई किसान आंदोलन में सौ-सौ, दो-दो सौ रुपए ‌में महिलाओं के शामिल होने की टिप्पणी को बताया, जिसमें उसकी मां भी शामिल थी। वास्तव में यह टिप्पणी न तो स्पेशल उसकी मां के लिए थी और न ही उतनी अभद्र एवं ग़लत थी। राजनीतिक, सामाजिक आंदोलनों में पैसा देकर भीड़ जुटाने की बात अजूबी नहीं है। ‘शाहीन बाग’ में कैसी भीड़ जुटाई गई थी, सब जानते हैं। ‘किसान ट्रैक्टर परेड’ के नाम पर 26 जनवरी 2021 को तांडव मचाने और लालकिले पर चढ़कर तिरंगे का अपमान करने वाली भीड़ में कितने और कैसे किसान थे, यह भी देश ने देखा। शंभू बॉर्डर पर चले कथित किसान आंदोलन को भी देश की जनता ने देखा और भोगा है, जिसमेें महिला सुरक्षा गार्ड अपनी मां के शामिल होने की बात कह रही है। इस कथित किसान आंदोलन में तरह-तरह के हथियार लहराना, भारतीय तिरंगे को फाड़ना-कुचलना, खालिस्तानी झंडे फहराना, आसमान पर ‘खालिस्तान जिंदाबाद’ लिखा विशाल गुब्बारा उड़ाना, देश को बांटने की धमकियां देना जैसे देशद्रोही विचारों के सामने आंदोलन में शामिल महिलाओं पर कंगना राणावत की टिप्पणी रत्तीभर मायने नहीं रखती।


निःसंदेह संविधान का अनुच्छेद 19(1)(बी) देश के सभी नागरिकों को शांतिपूर्वक एकत्रित होने एवं बिना हथियारों के सार्वजनिक बैठक करने या जुलूस निकालने के अधिकार देता है। यह अधिकार नागरिकों को विभिन्न उद्देश्यों, जैसे- विरोध, प्रदर्शन या चर्चाओं के लिए एक साथ आने की अनुमति देता है, किंतु देश की सार्वजनिक व्यवस्था, संप्रभुता और अखंडता के हित में इस अधिकार पर प्रतिबंध लगाने को भी कहता है।


अभिव्यक्ति की‌ स्वतंत्रता सभी को है, किंतु संवैधानिक दायरे में। क़ानून का पालन करने की बाध्यता सभी के लिए ‌है। किसी भी रूप में क़ानून की अवहेलना ‌करना या क़ानून को हाथ में लेना अपराध की श्रेणी में आता है, यह देश के हर नागरिक को पता होना चाहिए। देश में बहुत कुछ संविधान की सीमा के परे किया जा रहा है। उचित होगा कि लोग देश की संवैधानिक शक्ति की परीक्षा न लें। प्रसंगवश किसी कवि का एक शेर याद आता है-
“न पूछो हमसे कि, सहने की हद कितनी है !
कर ले ज़फ़ा तू भी, करने की हद जितनी है !”

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं

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