Bhim Rao Ambedkar ‘ हम सबसे पहले और अंत में भारतीय हैं’
विशेष :14 अप्रैल, डॉ. अंबेडकर जयंती
भूपेन्द्र शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार
Bhim Rao Ambedkar : ‘हम सबसे पहले और अंत में भारतीय हैं, डॉ. बीआर अंबेडकर कहते थे। बाबा साहब ऐसे पहले और अभी तक के आखिरी भारतीय हैं, जिन्होंने धर्म, संस्कृति, समाज एवं राष्ट्र की उस राग और राह के जोशीले सुर छेड़े थे, जो उनके मनोनुकूल देशभर में गुंजायमान होते, तो उनकी तरह हर भारतीय गर्व के साथ यह तो कहता ही कि ‘मैं सबसे पहले और अंत में भारतीय हूं, साथ ही आज सरस संस्कृति, सुगठित समाज और अंतर्बलिष्ठ भारत विश्व में नंबर वन खुशहाल राष्ट्र के रूप में स्थापित होने की ताल ठोक सकता था।
गरीब, अस्पृश्य परिवार में चौदहवीं संतान के रूप में जन्मना तथा जीवन की हर नारकीय वेदनाओं से जूझते रहने के बावजूद एक चमत्कारी व्यक्तित्व का स्वरूपण दैवीय प्रताप नहीं तो और या था? अनेक सामाजिक और वित्तीय समस्याओं से लड़ते हुए वे भारतीय समाज के अभागे हिस्से ‘अछूतों के ऐसे अगुआ बने, जिसने महानता की सारी पराकाष्ठा को छुआ। देश के महान लीडर डॉ. अंबेडकर विश्व स्तरीय विधिवेधता, दलित राजनीति के पैरोकार अद्भुत प्रतिभाशाली नेता और समाजिक पुनरुद्धार के प्रणेता होने के साथ-साथ, संविधान के रचयिता थे। ब्रिटिश गवर्नर जनरल लॉर्ड लिनलिथगो ने कहा था- ‘डॉ. अंबेडकर अकेले 500 ग्रेजुएटों के बराबर हैं। स्व-परिश्रम से हासिल उनकी विद्वता इतनी है, जिसके बल पर वे शासन के किसी भी पद पर बैठ सकते हैं।
बाबा साहब कम उम्र में ही समाज में व्याप्त वर्ण-भेद की परिणति छूत-अछूत, गरीबी, शोषण के दंशों से आहत थे। वे न सिर्फ देश के लिए अंग्रेज़ों की गुलामी से मुक्ति चाहते थे, बल्कि देश की लगभग एक-चौथाई अछूत, शोषित, पीडि़त, गरीब, अशिक्षित आबादी को भी इन नारकीय वेदनाओं से विमुत देखना चाहते थे। वे देश के हर नागरिक को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं धार्मिक समानता दिलाने के हिमायती थे। उन्होंने बचपन से ही समाज में गरीबों (जिन्हें प्राचीनकाल से ही सामंतों, उच्चवार्णिक ढोंगियों और धर्मांधों ने दलित, अछूत, निम्न जाति और आज़ादी के बाद जल्दवाज़ी एवं राजनीतिक चालों के वशीभूत अनुसूचित जाति की दगीली छाप दी गई) की जो दशा देखी और भोगी, उसने उनके अंतस में गहरी चोट पहुंचाई। यह वह समय था जब पूरा देश अंग्रेज़ों से आज़ाद होने के लिए युद्ध-स्तर की तैयारियां कर रहा था, तो अकेले डॉ. अंबेडकर के दिल में देश के दलितों और शोषितों के अंधकारमय भविष्य में प्रकाश फैलाने की आग भभक रही थी, जिसके लिए वे समाज के कथित उच्च वर्ग और राजनीति से संघर्ष कर रहे थे। उनका मानना था देश की उन्नति के लिए समाज से भेदभाव पूर्णत: मिटाना आवश्यक है एवं देश के हर वर्ग को समानता का अधिकार मिलना चाहिए।
आज़ादी के बाद देश के बाद संविधान निर्माण के लिए विचारणीय हज़ारों विद्वानों में से सर्वोपरि नाम डॉ. अंबेडकर का आया। वे देश के पहले कानून मंत्री बने। हालांकि इस समय तक देश के एक-चौथाई शोषित वर्ग की दुखद स्थितियों और इससे उन्हें उबारने के ढेर प्रयासों की विफलता ने उन्हें अंदर-बाहर से तोड़ दिया था और इससे लगातार उनका स्वाथ्य गिरता जा रहा था, फिर भी अपनी बिगड़ती सेहत के बावजूद दो साल के अथक प्रयासों से उन्होंने देश को एक मजबूत संविधान दिया, लेकिन समाज में समानता एवं समरूपता लाने के उनके सपनों को बहु-स्वीकार्यता न मिलने और सरकार में अपनी प्रभावशीलता का ग्रास घटने की नैराश्यता ने उन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देने को विवश कर दिया। संसद में अपनी सामाजिक हितमारी ख्वाहिशों को साकार न होने देने के विरोध में दिए गए इस्तीफे में डॉ अंबेडकर ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की ईमानदारी पर संदेह ज़ाहिर किया था।
भगवान बुद्ध के उपासक और अहिंसा के पुजारी डॉ. बीआर अंबेडकर समाज में प्रेम, सम्मान और भाईचारा चाहते थे और उन्होंने अपने अनुयायियों को भी यही उपदेश, मार्गदर्शन, संदेश दिया। आज़ादी के बाद आरंभ से ही देश की राजनीति में राज प्राप्ति के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति की अप्रिय रीति ने बहुत जल्दी ही बाबा साहब का उससे मोहभंग कर दिया। हालांकि अपनी सामाजिक जि़म्मेदारी वे आजीवन निभाते रहे। यह उनकी कुशल बुद्धि और सोच का ही परिणाम था कि उन्होंने समाज में कभी भी हिंसात्मक आंदोलन, विचार और कर्मों को बल नहीं दिया। वे सदैव कायदे और व्यावहारिक तरीके से ही अपनी बातों को समाज एवं राष्ट्र के धरातल पर रखते रहे।
उन्होंने समान रूप से रूढि़वादी और जातिवादी हिंदू समाज एवं इस्लाम की संकुचित एवं कट्टर नीतियों की खूब आलोचना की। हिंदू और इस्लाम धर्म की निंदा ने उन्हें विवादास्पद और अलोकप्रिय भी बनाया। बाबा साहब समझ चुके थे कि लोगों के मनों में धर्म और वर्ग-भेद का भाव इस हद तक बिंधा है कि वे उसे आसानी से नहीं त्याग सकते। उनका मत था कि संयुत, एकीकृत आधुनिक भारत के लिए सभी धर्मग्रंथों की संप्रभुता खत्म करना ज़रूरी है। राजनीतिक स्तर पर बतौर $कानून मंत्री उनकी इच्छा के विरुद्ध- हिंदू कोड बिल का निरस्त होना, पूना समझौता की विफलता और उनके धारा 370 के विरोध पर राजनीतिक असहमति से भी उन्हें गहरा दुख हुआ।
अथक, अडिग बेनतीजा संघर्ष के बाद उन्हें महसूस हुआ कि शोषित समाज के उत्थान के लिए वे जो अपेक्षाएं भारत सरकार से रखते थे, वे बेमानी हैं और वे अपनी इच्छाएं पूर्ण करने में असफल रहे। देश में कानून बनने के बावजूद दलितों-शोषितों की दयनीय स्थिति देख उन्हें गहरा दुख हुआ। तब देश व समाज में इस अछूत वर्ग को अन्य जातियों के समकक्ष लाने के लिए बाबा साहब ने गहन अध्ययन और मंथन किया। नतीजतन, लाखों अनुयायियों के साथ उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया।
उनका मानना था कि अछूतों के उत्थान और सम्मान के लिए यही एकमात्र सही रास्ता है। हिंदू धर्म छोडऩा उनके लिए धर्म परिवर्तन नहीं, बल्कि सामंतों और कथित उच्चिवर्ग की गुलामी से निजात पाना था। दुखद बात यह है कि आज भी समाज में उन्हें बराबरी का दर्जा हासिल नहीं हुआ तथा उनके साथ इंसानियत के तौर पर सम्मान एवं बंधुत्व का सुलूक नहीं किया जाता। खैर, डॉ. अंबेडकर को किसी जाति और धर्म से जोडऩा या मात्र दलितों के मसीहा के रूप में मंडित करना उनके अस्तित्व, व्यित, चरित्र और प्रतिभा के साथ सरासर अन्याय है। उनका व्यक्तित्व संपूर्ण मानव जाति के लिए- सद्भाव, सद्विचार, सद्बुद्धि, सद्कर्म का आज भी जीवंत प्रतीक था।
हां, शायद तब न सामाजिक और न राजनीतिक स्तर पर उस दिन यह आभास होना था कि वह हिंदू धर्म और समाज के लिए किसी काले दिन से कम नहीं था। शायद डॉ. अंबेडकर की उस पहल को न रोक पाने का संताप आज न सिर्फ हिंदू धर्म, बल्कि संपूर्ण देश का अंतर्मन महसूस करता होगा, क्योंकि लोभ और राजनीतिक स्वार्थपरता ने समाज के उस गरीब (जिसे निम्न, दलित, शोषित या अनुसूचित का दर्जा देकर सामाजिक विभेद को युग-युगीन बना देने की मुहर लगा दी) वर्ग को मोहरा बना दिया। आज़ादी के सात दशक में उसका उपयोग इसी नज़र से हुआ।
वास्तविकता यह है कि सामाजिक स्तर पर बाबा साहब उस वर्ग के लिए जो स्वतंत्रता, समानता और अधिकार चाहते थे, वह आज भी उससे वंचित है। यह कटु सत्य है कि उसके लिए आज तक समाज के बड़े हिस्से द्वारा कभी भी किसी भी स्तर पर छुआछूत और सामाजिक भेदभाव को खत्म करने की कोशिशें नहीं की गईं, साथ ही दलितों-अछूतों के सुशिक्षित, धनाढ्य वर्ग ने भी इस दिशा में कोई उदाहरणीय पहल नहीं की।
डॉ. अंबेडकर ने अनुयायियों को गांव-कस्बे छोड़ कर शहर जाने और शिक्षा पाने के लिए प्रेरित किया। सच यही है कि उनके दर्शन का अनुसरण कर उस व$त जो शोषित, गरीब और दलित व्यक्ति ने शहर का रास्ता पकड़ा, आज उनमें से अधिकतर ने शिक्षा हासिल की और अपना सामाजिक स्तर ऊंचा उठाया या कहें कि वे आम समाज में घुल गए। डॉ. अंबेडकर के राजनीतिक दर्शन से प्रभावित बड़ी संख्या में दलित राजनीतिक दल, प्रकाशन और कार्यकर्ता संघ बने, जो देशभर में सक्रिय रहते हैं।
निश्चित रूप से डॉ. अंबेडकर ने समाजशास्त्री, शिक्षाविद् और विधिवेधता के रूप में आधुनिक भारत की जो नींव रखी थी, उसके प्रति आज भी समाज और सरकारें उतनी चैतन्य नहीं हैं, जब कि उनके प्रकांड पांडित्य (बुद्धिमत्ता) का उदाहरण ही हैं उनके नाम के साथ जुड़े- अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री, इतिहासकार, विधिवेत्ता, मानव विज्ञानी, राजनीतिज्ञ, दलित मसीहा, धर्मशास्त्री, पत्रकार, संविधान रचियता और भाषाविद् जैसे अनगिनत विभूषण, जिनका सपना देखना भी हर किसी के वश की बात नहीं है।
सन् 2004 में कोलंबिया विश्वविद्यालय, न्यूयार्क ने स्थापना के 100 वर्ष पूरे होने पर दुनियाभर से अपने 100 ऐसे होनहार छात्रों की सूची तैयार की, जिन्होंने विश्व में अनुकरणीय कार्य किए और वे अपने क्षेत्र में अद्भुत, अद्वितीय रहे। विभूतियों की इस सूची में अमेरिका के तीन राष्ट्रपति, 40 नोबेल विजेता और वॉरेन बफे जैसी हस्तियां भी शामिल थीं।
गर्व की बात यह है कि इन सौ प्रतिभाओं में भारत को विभूषित करने वाली एकमात्र महान विभूति थी डॉ. बीआर अंबेडकर और उसमें भी चार चांद ये कि उनका नाम पहले नंबर पर था। इसी तरह सन् 2012 में देश के तीन चैनल्स सीएनएन, आईबीएन और हिस्ट्री टीवी द्वारा जनमत के आधार पर 100 सबसे महान भारतीय शख्सियतों की सूची तैयार की, जिन्होंने आधुनिक भारत के लिए अहम योगदान दिया तथा समाज एवं देश में विशिष्ट बदलाव किया। इस सूची में भी पहला नंबर बाबा साहब का था। इनके अलावा डॉ. अंबेडकर अकेले भारतीय हैं, जिनकी प्रतिमा लंदन संग्रहालय में कार्ल मार्क्स की प्रतिमा के साथ लगी हुई है।