‘हुजूर’ पुराण…. यह पब्लिक है ‘बाबू’ सब जानती है
चेहते की चुप्पी गहरी थी
बात एक ‘आजाद’ की. जो कुनबे (कांग्रेस) में आया था पांच साल बाद पूरी होने वाली उम्मीद को लेकर. चुनाव से एक साल पहले से मैदान में जुताई शुरू कर दी थी. कुनबे के मुखिया के कहने पर. खेत और पैदावार तुम्हारी होगी. बीज, खाद डाला, पानी दिया. पैदावार जब हुई तो कह दिया. हक उसका है जो हमारी पसंद है। खेती अपने के नाम करने से पहले खामोशी तो मुखिया की बनती है, क्योंकि वह राजनीतिक हैं. लेकिन पसंदीदा की चुप्पी चर्चा खूब हो रही है। कहा, जा रहा है सब कुछ पता था, लेकिन फिर भी कहता रहा, इस बार आप खेती कर रहे हैं, पैदावार आपकी होगी.
सेहरा उतारो, घोड़ी यह चढ़ेगा
अब यही बात दूसरे अंदाज में करते हैं. दूल्हा बनाया जब घोड़ी चढ़ने की बारी आई तो कह दिया तुम तो बाराती हो. दूल्हा तो कोई और है. सेहरा इसको बांधने दो. भाई ऐसा ही करना था तो पांच साल तक क्यों, कहा- बात पक्की हुई. तैयारी के लिए क्या कुछ नहीं किया. जमकर घूमे, पैसा लगाया. निमंत्रण कार्ड बांटें, बारातियों को भी तैयार कर लिया. ऐन वक्त पर धोखा. गुस्से में सेहरा तो उतारा नहीं अपनी घोड़ी फिलहाल बुला ली है. चढ़ने की जिद्द कर ली है. राजनीति है, राज की नीति न हो तो राजनीति कैसी. खेला करने वाले लगे हैं, कह रहे हैं मान जाओ. सत्ता में आए तो सत्ता से भरपाई कर देंगे
पेट घुटने की ओर झुकता है
वे सीधे-सीधे मोर्चे पर नहीं उतरेंगे, लेकिन घुमा फिराकर काम करेंगे. कहेंगे नहीं साथ दो, लेकिन मंशा बता देंगे. सर्दी हैं, इसलिए समाजसेवी भाव से कंबल बाटेंगे. पहले सेवा करते आए हैं, इसलिए नया कुछ नहीं करेंगे. जो चाहते हैं, उस पर नजर रखने वाले सैटेलाइट इमैज से भी नहीं समझ पाएंगे मकसद क्या है. न काहू से दोस्ती न काहू से बैर.. पर याराना जिससे है उससे यारी निभाएंगे. पेट घुटने की तरफ झूकता है.
चलते-चलते… बता सियासतदानों और सियासी है, इसलिए सीधे-सीधे नहीं जुमलों में ही बात कर रहे हैं हुजूर पुराण में.. समझदारों के लिए इशारा काफी होता है, हमारे में आईने में सब साफ है। .. हर रोज बांचेंगे पुराण