पटरी पर लौटेगी जिंदगी, गुनाहगार होंगे दर्ज

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… हालातों से डर जाए वो इंसान नहीं…. हालातों से निपट न सके वो इंसान नहीं… हालात के आगे सरकार पंगु हो जाए वो सरकार नहीं… राजनीतिक हिसाब से हालातों की परिभाषा करना अपराध है…. इस अपराध में शामिल होने की लिस्ट लंबी है… हालात तो ठीक हो ही जाएंगे… पर सरकार आप तो बेनकाब हो ही गए

 

ऐसी कोई रात नहीं.. जिसके बाद सुबह न हुई हो। ऐसी कोई त्रासदी नहीं, जिसके बाद जिंदगी पटरी पर न लौटी हो। मन का विचलित होना मानव प्रवृत्ति है, जब दु:ख आता है तो वह बहुत जल्द टूट जाता है… सुख के समय खुद को सर्वशक्तिमान मानता है।
मेरे सामने दो तरह के दर्शन हैं… दोनों मेरे पिता के काव्य संग्रह से हैं। एक में यथार्थ है दूसरे में चुनौती है। यथार्थ सांसों को थमना और चुनौती मौत को। सच तो यह है कि जिंदगी एक राह है जिस पर उम्र चला करती है कभी सुख तो कभी गम में पला करती है.. मृत्यु के नाम आंसू न नयन में लाओ मृत्यु पाने के लिए ही तो सांस चला करती है। लेकिन भाव मौत को चुनौती देने वाला होना चाहिए- जिंदगी शोला बनी तो हम जलेंगे कटंकों की राह पर भी हम चलेंगे। मौत जब दिल आए बेखौफ चली आना हम तुम्हारे साथ चलेंगे।
खूबसूरत जिंदगी के पलों में ऐसी बातें मन में नहीं आती या मन इस ओर जाता ही नहीं। विपत्ति काल में आमतौर पर हर शख्स परेशान होता है, हताश होता है, खौफजदा होता है। वक्त गुजर जाता है, कुछ सबक सिखते हैं, कुछ सबक सबक छोड़ जाते हैं। वक्त हर इंसान को इतिहास में विपत्ति काल में उसकी भूमिका के रूप में दर्ज करता है।
कोरोना काल में रिश्ते निभाना बेहद कठिन हो रहा है। संक्रमित होना गुनाह करने जैसा हो रहा है। मरीज के साथ एक ही व्यवहार होता है, चाहे वह अस्पतालों में हो या घरों में अकेले रहो। कहा जा रहा है, ज्यादातर मरीज सामान्य इलाज के साथ ठीक हो रहे हैं। हालांकि चिकित्सा जगत से डराने, समझाने वाली सोच सामने आ रही है। यह कहने में संकोच नहीं है कि कुछ जांच के नाम पर अर्थ की चिंता कर रहे हैं।
सरकार, सिस्टम की बात करना तो बेमानी लग रहा है। यह भी सच है कि हालात ने सिस्टम को पंगु बना दिया है। लोकतांत्रिक देश में नेतृत्व सब कुछ तय करता है। दावों और सच्चाई के बीच काफी बड़ी खाई होती है। हालात चीख-चीख कर कह रहे हैं, हमसे निपटने की तैयारी आपने नहीं की थी। सवाल हालातों से निपटने वाले मौजूद सोच पर भी है। जब तक दवाई नहीं, तब तक कड़ाई… अब दवाई भी कड़ाई भी… लॉकडाउन नहीं अब वैक्सीन है… सुन है, सुन रहे हैं।
अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी से हो रहीं मौतें, मरीजों को भर्ती करने के लिए बेड नहीं… का जिम्मेदार कौन है भेल ही आज कहने का साहस नजर नहीं आ रहा। हांफतीं, टूटती सांसों के गुनाहकारों को इतिहास कभी माफ नहीं करेगा।
….. बहुत हुआ मैं तो यही कहूंगा, हालातों से उबरकर नई सुबह जल्द आने वाली है। भले ही कुछ अपनों का साथ छूट जाए, लेकिन नई सुबह होने वाली है। नई रश्म होगी, नई विभा हो, नया-नया सारा प्रात: होगा। मैं पॉजिटिव नहीं हूं, लेकिन लंबे समय बात होम आइसोलेशन में हूं… बेटी और अपने परिजनों के संक्रमित होने से मैं अपना सामाजिक दायित्व निभा रहा हूं।
& अजय तिवारी

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