वटवृक्ष की “छाया”… गुजरते कारवां के गुबार में घिरी
अजय तिवारी
सांझ ढल रही है… सुबह से शाम तक का सफर करते हुए बहुत चकाचौंध देखी है। धीरे-धीरे सूरज पश्चिमांचल में अस्त हो रहा है। आसमान में अभी लालिमा नजर आ रही है, लेकिन जल्द ही गहरे अंधेरे का सफर शुरू होगा। मेरी छाया अंधेरे में भी नजर आएगी। मेरे आसपास गहरा सन्नाटा होगा, बैठे हुए पंछी भी सो जाएंगे।
वटवृक्ष क्या कह रहे हो.. सुबह होगी यह तय है। ठीक उसी तरह जिस यह दिन ढल रहा है। पंछी भी चहचहाते हुए नए उड़ना का सफर तय करेंगे। छाया की आस लेकर यहां भी लोग आएंगे। कोई दिन इतना भारी होता है, जो पुरानी राह को भी धूल से भर देता है। कारवां गुजरने के बाद गुंबार थम जाएगा। जो कुछ इस ढलते दिन के साथ तुमने देखा है, वह न देखना पड़े, बस यही सोचो। रात और उसके अंधेरे को टाला नहीं जा सकता।
सुनो राहगीर.. न तो रात का अंधेरा मुझे बेचैन नहीं कर रहा है न सुबह उजाले से भरी हो गई इसे लेकर मन में कोई संशय है। बेचैनी तो रात को सुकून से नींद न आने की है, क्योंकि मेरे पत्ते ही टकरा टकराकर गिर रहे हैं। मेरे होने न होने को लेकर भी सवाल जेहन में नहीं है, क्योंकि जिस माली ने मुझे वटवृक्ष बनने के लिए पौधे के रूप में रोप था, वह मानव नहीं महामानव था। उसने खुद के अस्तित्व को दूसरों की भलाई में ढूंढा था। मेरी छाया की आस लेकर आने वालों के लिए उसकी साधना हर वह शख्स महसूस करता है, जिसका दर्द मेरी छाया में मुस्कान में बदला है।
चलो वटवृक्ष.. तुम बेचैन हो, लेकिन परेशान नहीं। आज की निराशा तुम्हे अस्तित्व के सवाल तक नहीं ले जाती। तुम्हारी बगिया के आसपास बहुत कुछ बदल रहा है। पहले तुम्हारी विशालता में महानता का अहसास होता था.. सेवा करके मेहरबानी का भाव नहीं होता था। केवल देने का भाव होता था, अब लेने की सोच मुझे परेशान करती है।