मां ममता का सागर है, मानवता का विश्वविद्यालय
12 मई अंतरराष्ट्रीय मातृ दिवस
मां सब की जगह ले सकती है, मां की कोई नहीं
ऋषि वाल्मीकि ने लिखा है- जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी- मां और मातृभूमि का स्थान स्वर्ग से भी ऊपर है। गुरुओं में मां सर्वोच्च है। पिता से हज़ारों गुना उच्च। निस्संदेह, मां स्वरूप की अहैतुकता ही उसकी श्रेष्ठता है। मां, संतान के लिए स्नेह, करुणा, सहनशीलता, धैर्य, कर्तव्यपरायणता और परित्याग का जो आदर्श प्रस्तुत करती है, वह सीधे मानवता से साक्षात्कार कराता है। मां ममता का सागर, मानवता का विश्वविद्यालय है। मां की पीड़ा, दर्द, इच्छा को कोई कभी ठीक से नहीं जान पाता है, न उसकी ख़ुशियों को समझ पाता है। मां की अपार ख़ुशी और असीम दुख उसके आंसुओं में घुल प्रवाहित हो जाते हैं, जिन्हें मापा नहीं जा सकता है। शब्दकोशों में मां की महिमा व्यक्त करने का सुदृढ़ शब्द और मां के परित्याग का एहसास कराने वाली चित्तवृत्ति पाना मुश्किल है?
फ्रांसीसी साहित्यकार मार्सेल मुस्त के अनुसार- ‘जब तक हम दुख का अनुभव पूरी तरह नहीं करते, तब तक उसका समाधान भी नहीं निकाल सकते।’ वास्तव में मुस्त के विचार माकूल हैं। प्रसंगवश रियाद का एक क़िस्सा याद आता है। अरब देशों के बारे में शायद ज़्यादा बताने की ज़रूरत नहीं। महिलाओं के लिए ग़ज़ब की पाबंदियां, सख़्त पहरेदारियां होती हैं। वर्ष 2015 में वहां महिलाओं को मताधिकार मिला। ख़ैर– ‘दो वर्ष पूर्व एक ज़हीन महिला द्वारा पति को तलाक़ देने का मामला अदालत में पहुंचा। पति महिला पर जान छिड़कता था। वह पत्नी का ज़रूरत से ज़्यादा ख़याल रखता था। अंचभित जज ने पत्नी से तलाक़ का कारण पूछा, तो पत्नी ने बताया कि पति मुझे तो बहुत प्यार करता है, पर अपनी मां को नहीं चाहता है। … और जो व्यक्ति मां के लिए अच्छा नहीं, उस पर मैं भरोसा नहीं कर सकती। जब वह मां का नहीं हुआ, तो मैं उसके छोड़कर जाने का इंतज़ार क्यों करूं? जज ने तहेदिल से महिला की प्रशंसा करते उसका तलाक़ मंज़ूर किया।’ कमाल की विचारशील महिला है! शायद यह एक मां के त्याग और दुखों का अनुभव करने का दुनिया का विरला उदाहरण होगा। मां के महत्व को महसूस करने वाली ऐसी उदारमना स्त्री को नमन!
बहरहाल, मां को स्तर, वर्ग, धर्म के आधार पर नहीं बांटा जा सकता। हर मां अपनी भूमिकाओं का निर्वहन पूरे मनोभाव से करती है। हां, मातृ रूप में वह दो पाटों में बंटती है- जी और देह। जो दिखती है, वह सिर्फ़ देह होती है। उसका जी ममत्व रूप में संतान की छाया बना घूमता है। तिस पर आज की मां तो चहारदीवारी के भीतर सिमटा जीवन नहीं जीती। ऐसे में वह कितने मोर्चों पर जूझती है यह, जो उसके दुखों का अनुभव (मार्सेल मुस्त के कथनानुसार) पूरी तरह कर पाएगा, वही समझ सकता है। घर भीतर, कार्यस्थल, समाज और क़ानून ऐसे प्रमुख बिंदु हैं, जहां उसे विभिन्न प्रकार की समस्याओं और यातनाओं का सामना करना पड़ता है।
बतौर उदाहरण कुछ क़िस्से पढ़िए, पहला- 26 जून, 2019 का मामला है। मप्र के एक जिला अस्पताल में 13 किलोमीटर दूर से लाई जा रही गर्भवती को पीड़ा होने पर, पुरुष कंपाउंडरों ने प्रसूति कराई। अफ़सोस है कि एक गर्भवती को लेने गए स्टाफ़ में स्त्री कंपाउंडर क्यों नहीं थी। भारतीय संस्कृति इस प्रक्रिया को क़तई स्वीकार नहीं करती। हो सकता है आधुनिक विचारक मेरी बात से सहमत न हों, किंतु मेरी नज़र में यह एक अनुचित तरीक़ा है, जिससे एक स्त्री की मर्यादा भंग हुई। भारतीय संस्कृति में मृत महिला की कुछ अंतिम संस्कार प्रक्रियाएं सिर्फ़ महिलाएं ही कराती हैं, वह तो जीवित स्त्री थी। दूसरा- भोपाल में 14 वर्ष पूर्व शादी करने वाले डॉक्टर पति ने, दो बच्चों की मां डॉक्टर पत्नी को भूखा रखा, मारपीट की और घर से निकाल दिया। जबकि शादी में उसे 16 लाख रुपए और पूरा सामान दिया गया था। तीसरा- फरवरी, 2018 में न्यूयॉर्क में पति से हुए झगड़े के मामले में पुलिस ने एक महिला को गिरफ़्तार किया। महिला उस समय नौ माह की गर्भवती थी। उसी दौरान उसे प्रसव पीड़ा होने पर पुलिस ने अस्पताल में भर्ती कराया, लेकिन उसकी हथकड़ी नहीं खोली। क़ानून के सामने बेवश महिला ने हथकड़ी पहने ही बच्चे को जन्म दिया। जब कि न्यूयॉर्क में गर्भवती महिलाओं को जेल या हिरासत में नहीं रखा जा सकता। एक मां बनने के लिए उसकी प्रथम प्रक्रिया अभूतपूर्व सुख, आनंद के साथ पूरी होना थी, वह हथकड़ी पहने एक अपराधिन के रूप में तनाव युक्त स्थिति में हुई, यह अमानवीयता है।
उक्त क़िस्से मात्र नमूना हैं। एक मां (स्त्री) को परिवार, समाज, दफ़्तर, बाज़ार में न जाने कितनी परेशानियां सहना पड़ती हैं। फिर भी कहीं भी, कितनी ही यातनाएं क्यों न मिलें, मां की गरिमा का मुक़ाबला नहीं। मातृभाव से ओतप्रोत स्त्री दुनिया की सारी बलाएं झेल लेती है। मां की महिमा पर सुभद्रा कुमारी चौहान की कविताओं की कुछ लाइनें यहां प्रासंगिक हैं- ‘कोयल यह मिठास क्या तुमने, अपनी मां से पाई है? मां ने ही क्या तुमको मीठी, बोली यह सिखलाई है?’ ‘मेरे भैया मेरे बेटे अब, मां को यों छोड़ न जाना/ बड़ा कठिन है बेटा खोकर, मां को अपना मन समझाना। भाई-बहन भूल सकते हैं, पिता भले ही तुम्हें भुलाए/ किंतु रात-दिन की साथिन मां, कैसे अपना मन समझाए।’
पूरी दुनिया में लगभग 2.5 अरब मांएं हैं। मां जो भी घरेलू कार्य करती है, अगर वे सारे कार्य आप किसी और से कराएं, तो करीब 4.2 लाख रुपए प्रतिवर्ष खर्च होंगे। मां एक सप्ताह में 14 घंटे खाना बनाने में बिताती है। बच्चा होने पर मां पहली साल में बच्चे के क़रीब 7300 बार डायपर बदलती है। मां की लीला अपरंपार है। मां के रूप में स्त्री कभी दायित्वों से मुंह नहीं मोड़ती। उसके लिए मां बनने से बड़ी जीवन में दूसरी कोई ख़ुशी नहीं होती। मां तो मां है! मां बेमिसाल है!
स्कंद पुराण में लिखा है-
नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गति:। नास्ति मातृसमं तृणं, नास्ति मातृसमा प्रपा।।
मां के समान सृष्टि में कोई छाया नहीं, मां के समान कोई आश्रय नहीं। मां समान कोई सुरक्षा नहीं और मां के समान भूलोक में कोई जीवनदाता नहीं।
- भूपेन्द्र शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार,
- एच-100, राजहर्ष कॉलोनी, कोलार रोड- भोपाल