एक नगर है…. वक्त होत बलवान

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अजय तिवारी
कल की ही तो बात है… जब खामोशी से वो जिंदगी गुजर बसर कर रहा था। सब कुछ बिना शोर शराबे के चल रहा था। वक्त बदला- चाहने वाले बढ़े, मित्र मंडल भी तैयार हो गया। शहर सज गया, शहनाइयां बज उठीं। उससे मिलने का रूख न करने वाले बेहद खास हो गया। वैसे स्वभाव से वह सज्जन था, लेकिन कुर्सी मिली तो कुर्सी का मिजाज स्वभाव में आ गया, ऐसा होना लाजमी भी है। समय का फेर ही कुछ ऐसा ही होता है। पहला अकेला चलता था, कभी कभार ही कुछ लोग साथ होते थे, लेकिन अब तो भीड़ है। दायें-बायें वाले भी तैयार हो गए थे।


वक्त जो बलवान हो गया था… कुर्सी का खुमार दिख रहा है, लेकिन कुर्सी की ड्यूटी अभी नजर नहीं आ रही है। शहर दरबार में मंत्री जो हो गए। मौका आया था खासम खास को बुला डाला। वह भी खास मौके पर नजर आए, जिनने टांग खींचने में कोई कसर नहीं रखी थी।


ऐसा नहीं पहला मौका है आम से खास बनने का। खास होने के पहले दौर के किस्से भी खास हैं। ताजा-ताजा मामला है, इसलिए शॉल, श्री फल सत्कार संस्कृति से घिरे हुए हैं। कितना वक्त लगेगा.. कुर्सी देने वालों से किए वादे पूरा करने में। जिसके लिए कुर्सी मिली है.. वह ड्यूटी करने का। अभी तो बदले-बदले नजर आ रहे हैं… सरकार। बहुत कुछ लिखा जा सकता है, लेकिन समझ सको तो समझो, जो आपसे सुना वहीं घुमाफिरा कर कह रहा हूं… उनकी समझ आई तो खास होने के बाद भी आम आदमी के बीच आम की तरह पहुंचेंगे कुर्सी दिलाने वालों के बीच।

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