मेरी कलम

वृटवृक्ष की छांव को भेद रहा, धूप का झुलसाने वाला मिजाज

अजय तिवारी

वटवृक्ष से संवाद के लिए लंबे अर्से बाद पहुंचा था। तूफान के पहले की खामोशी थी, हो भी क्यों न, जो छांव में से धूप झांक रही थी। छांव की तलाश में नीचे खड़े लोग तपिश का अहसास कर रहे थे। कुछ देर शांत खड़ा रहने के बाद वटवृक्ष से संवाद की शुरूआत की। पूछा, छांव देने वाली विशालता में धूप कैसे झांकने लगी। जवाब, मिला- बहुत कुछ घट रहा है। बहुत कुछ घटने वाला है। बेचैनी भरे दिन कट रहे हैं। शीतल पेय की तलाश में कोई मेरे पास आता है, तो घड़े में पानी इतना कम हो गया कि कंकड डालने से भी पानी ऊपर नहीं आ रहा है। कौआ (जरूरतमंद) प्यासा लौट रहा है। “सेवा” का भाव “सौदा” में बदल गया है। बिना लाभ-हानि के सेवा के भाव की “छांव”, कमाने की सोच “धूप” से झुलस रही है।
वटवृक्ष की विशालता को नकारते हुए शब्द हैरान, परेशान करने वाले थे। चिंतन करने का आग्रह था, लेकिन यह कहते हुए कि समय के साथ चलना इसे ही कहते हैं। एक सी सोच के साथ हमेशा नहीं चला जा सकता। पुरानी सोच छोड़कर उससे निकली नई पौध को पानी देना जरूरी है। ऐसा नहीं किया तो कोई भी रास्ता हो तय करना संभव नहीं होगा। पैसा सब कुछ नहीं होता, लेकिन कम भी नहीं होता। यह समझ लिया है- मुझे वटवृक्ष बनने के बाद मेरे माली ने।
वटवृक्ष यही नहीं रूका, उसने कहा – परंपरा, प्रतिष्ठा, अनुशासन मेरे आंगन के तीन स्तंभ थे, सॉरी अभी हैं, कह सकता हूं। ये वो आदर्श हैं जिनसे हमारी छांव और छांव की तलाश में आने वाला कल है। वक्त अपने हिसाब से चलता है, आज की गलती कल इतिहास होती हैं और इतिहास को कभी झुठलाया नहीं जा सकता।
मैंने कहा, क्या बात है पहले आप खामोश थे, वह क्या टूटी उसमें तो धूल का बंवडर है, जो अपने साथ सब कुछ उड़ा ले जाने को उतावला है। जो भी यहां-वहां पड़ा है एसे साफ करता आगे बढ़ रहा है। नहीं, ऐसी बात नहीं- कल तक जो मेरे पास आकर माथा टेकते थे, वह अपनी ताकत दिखा रहे हैं, ताकत के बल पर जो रहे हैं वह करवा रहे हैं। मेरे अपने मेरे प्रिय की चिंता के लिए वक्त नहीं निकाल पा रहे हैं। मेरे आसपास लगा हर वृक्ष जब पौधे के रूप में रोपा गया था, आज अपने फल का मौल मांग रहा है। उसके फल जरूरतमंदों से दूर होते जा रहे हैं, मेरी बगिया अब केवल प्रभु की बगिया रही है। तौल-तौल कर बिक रहे हैं मेरी बगिया के फल।
मुझे आपकी (वटवृक्ष) बातें.. ऐसा लग रही हैं, जैसे सत्य अपने स्वरूप में आना चाहता है। लेकिन, आपका धर्म छांव देना है, वह तो आपको निभाना होगा। अरे.. अरे.. मैं निराश नहीं हूं, हालातों से बेचैन हूं। मैं अपना छांव देने का धर्म नहीं छोड़ूंगा। उम्मीद है, बादलों कालापन छंटेगा, रिमझिम फुहारें गर्मी की तपिश के बाद आएंगी। झरते पत्ते, पल्लवित होंगे, धूप उनसे बाहर नहीं निकल पाएगी। मेरा धर्म “सेवाभाव” के दायित्व पूरा करेगा।
आलेख में छायावादी लेखन हैं.. इस उम्मीद से वटवृक्ष का छांव वाला धर्म शीतलता लेकर आएगा। इस बार इतना ही। नमस्कार!

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