पौधे को वटवृक्ष बनाने वाले गुरू ने कहा, वजूद आज भी जड़ों पर खड़ा है

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अजय तिवारी

संध्या हो रही थी जब आगाज हुआ… पूरा होते-होते संध्या ढल चुकी थी। “परिंदे” जो दशकों पहले “एक पेड़” की किसी डाली पर बैठकर नई उड़ान के लिए हर रात, दूसरे की दिन की सुबह के लिए सो जाते थे। उन्हे हर दिन सुबह पेड़ की पत्तियां की आहट उठाती थीं। नई उड़ान के लिए। उड़ान आमतौर पर खबर की भूख की होती थी, अपनी-अपनी उड़ान में हर परिंदा अपना लक्ष्य पूरा करके लौटता था और पेड़ की छाया में आकर बैठ जाता था। जिद्द थी माली की पौधे से पेड़ और पेड़ से वटवृक्ष बनाने की, जो उसने अपने दायित्व निर्वहन काल में अपने परिंदों के साथ पूरा कर दिया था। जिस वटवृक्ष की छाया में आज हजारों नए परिंदों का बसेरा है, वह नई तकनीक के साथ निश्चय उड़ान भर रहे हैं। उस वटवृक्ष बनाने और उसके “माली” के सानिध्य में बैठने का मौका मिला.. मैं भी उस उड़ान का हिस्सा कभी रहा था, जो आज पत्रकारिता के आकाश में अपने प्रतिमान स्थापित कर रहा है और अपनी मिसाल छोड़ रहा है। लेकिन, पौधे को पेड़ और पेड़ को वटवृक्ष बनाने के अनुष्ठान में आहुतियां देने वाले उम्र की सीढ़ियां चढ़ते हुए आज वटवृक्ष की ध्वजा थामे लोगों को याद न हों सच तो यह है जड़ों के वजूद से ही वटवृक्ष आज खड़ा है और खड़ा रहेगा।

भावुकता से भरा आयोजन राजधानी में हुआ, संभवत: पहला मौका था जब लंबा सफर पत्रकारिता में तय करने वाले शिष्य अपने गुरू आदरणीय श्री महेश श्रीवास्तव से आशीर्वाद लेने एक जगह पहुंचे थे। बता जगह जन्मे अपनेपन से पहले आयोजन के उस बिंदु से करूंगा, जो जहन में आया था। श्री रवीन्द्र जैन अनुष्ठान का संकल्प लिया होगा। साथ आए थे श्री आरिफ मिर्जा, श्री अलीम बजमी, श्री विनोद तिवारी व अन्य साथी। दशकों के पहले जीवन के सफर में संघर्ष के साथ लक्ष्य को हासिल करने के लिए हर शाम जो एक दफ्तर में जुटते थे। एक परिवार की तरह उठते बैठते थे। समय के साथ रास्ते बदल गए। लेकिन, अपने साथ जो गुरू मंत्र लेकर चले, उसे आज तक पूरी शिद्दत से निभा रहे हैं।
पत्रिकारिता में आए “सर कल्चर” में “भाई साहब” वाले दिन आज भी उनके जेहन में बने हुए हैं। सर में कार्पोरेट है और भाई साहब वाले बोल में परिवार का सदस्य होने का अहसास। भाई साहब(महेशजी) ने अपने हर परिंदों को विपरित से विपरित परिस्थिति में उड़ान भरना सिखाया था। चुनौतियां के बंवडर से निकलने का हुनर। एक पिता की तरह डांटते थे, लेकिन संभालते भी पिता के अंदाज में थे। बहुत हुआ जो कहना था, अब बात आदरणीय महेशजी के सुने उन शब्दों की जिसके वह जादूगर थे और शब्दों की जादूगरी करने का हुनर अपने हर शार्गिंदों को दिया। भाषा, विश्वनीयता और ईमादारी पर सब खरे उतरे यह महेशजी ने खुद कहा।

आत्मीयता भरे अनुष्ठान में जब महेशजी बोले तो लगा, वह दशकों पुराने अपनेपन का अहसास था। वे चर्चा तो पत्रकारिता करते अनुभव और अपने सफर की कर रहे थे, लेकिन वहां मौजूद हर शिष्य खुद पर गर्व कर रहा था, क्योंकि पत्रकारिता के संस्कारों की बात हो रही थी और एक गुरू शिष्यों से कह रहा था- मुझे अपने शिष्यों पर गर्व है, जो भी जहां है, मेरे दिए संस्कारों के साथ है। यह मेरी कामयाबी है। वे उम्मीद से भरे थे अपने शिष्यों को लेकर।
मौका गुरू के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का था तो शॉल, श्रीफल, पुष्प गुच्छ शिष्यों के हाथों में थे, एक-एक कर वंदन कर रहा था उस वक्त का था, जब महेशजी की पाठशाला में हुआ करता था। कुछ ने अपनी बात कहीं, कुछ खामोश आनंद का अहसास करते रहे। दो-तीन घंटे के कार्यक्रम ने तीन दशक पहले ले जाकर खड़ा कर दिया। आयोजन के लिए साधुवाद.. फिर मिलेंगे किसी न किसी बहाने।

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