जनजातीय नायकों का स्वतंत्रता संग्राम: मध्यप्रदेश में सबसे पहले फूँका था आजादी का बिगुल

जनजातीय नायकों का स्वतंत्रता संग्राम: मध्यप्रदेश में सबसे पहले फूँका था आजादी का बिगुल

BDC News. आलेख प्रभाग

भारत की स्वतंत्रता के लिए जनजातियों का संघर्ष अद्वितीय रहा है। मध्यप्रदेश में भी जनजातीय नायकों ने अंग्रेजों के खिलाफ सबसे पहले हथियार उठाए और अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया। 1817 के खानदेश विद्रोह से लेकर 1857 के महासंग्राम तक, भील, भिलाला और गोंड जैसे समुदायों ने अपनी स्वाधीनता और स्वाभिमान की रक्षा के लिए निरंतर संघर्ष किया। इन नायकों में टंटया भील, भीमा नायक, शंकर शाह और रघुनाथ शाह जैसे नाम शामिल हैं, जिन्होंने अंग्रेजों की क्रूरता का डटकर मुकाबला किया।

भारत में प्रत्येक विदेशी आक्रमणकारी के विरुद्ध सबसे पहले जनजातियों ने ही शस्त्र उठाए थे। अंग्रेजी राज में, सबसे पहले इन्हीं जनजातियों ने स्वत्व और स्वाभिमान की रक्षा के लिए तीर-कमान उठाए और अंग्रेजों से संघर्ष किया। अंग्रेजों ने जनजातियों का दमन करने के लिए दो मुख्य तरीके अपनाए: पहला, शिक्षा और सेवा के नाम पर उनका धर्म परिवर्तन कराना; दूसरा, कुछ समूहों को ‘अपराधी’ घोषित करना।

भीलों का लम्बा संघर्ष:

उत्तर के विंध्याचल से लेकर दक्षिण-पश्चिम के सहयाद्रि तक फैले भील समुदाय ने अंग्रेजों के खिलाफ 1817 में खानदेश से विद्रोह शुरू किया। 1818 में अंग्रेजों के कब्जे के बाद भी भीलों ने पराधीनता को नकार दिया और संघर्ष जारी रखा। अंग्रेजों ने दमन, रसद की नाकेबंदी और प्रलोभन का सहारा लिया, लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। भील नायकों, जैसे गोंडा जी दंगलिया, दशरथ और हिरिया ने लगातार मोर्चा संभाला। 1857 के संग्राम में भी भगोजी नायक और काजर सिंह ने भीलों का नेतृत्व किया।

शौर्य और बलिदान:

शंकर शाह और रघुनाथ शाह: जबलपुर के गोंड राजा शंकर शाह और उनके पुत्र रघुनाथ शाह ने 1857 में गुप्त रूप से क्रांति की योजना बनाई। उनकी राष्ट्रभक्ति से भरी कविता के कारण अंग्रेजों ने उन्हें तोप से उड़ा दिया, जो इतिहास में बलिदान का एक अनोखा उदाहरण है।

भीमा नायक:

निमाड़ क्षेत्र के भीमा नायक ने 1840 से 1864 तक अंग्रेजों से लोहा लिया। तात्या टोपे से प्रेरित होकर उन्होंने 1857 के समर में अंग्रेजों को हिला दिया। उनकी माँ, सुरसी, ने भी क्रांतिकारी टोली का नेतृत्व किया और जेल में यातनाएँ सहते हुए बलिदान दिया।

खाज्या नायक:

सेंधवा घाट के खाज्या नायक ने अंग्रेजों की नौकरी छोड़कर भीलों के स्वतंत्रता संग्राम की कमान संभाली। उन्होंने तात्या टोपे के साथ मिलकर अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी। 1860 में एक गद्दार के धोखे से वे शहीद हो गए।

टंटया भील:

टंटया भील को ‘टंटया मामा’ के नाम से जाना जाता था। उन्होंने गरीबों को साहूकारों के शोषण से मुक्त कराया। उन्होंने गुरिल्ला युद्ध का प्रशिक्षण तात्या टोपे से लिया और अंग्रेजों को लगातार छकाया। 1889 में गद्दारी के कारण उन्हें फाँसी पर चढ़ा दिया गया।

जंगल सत्याग्रह और टुरिया गोलीकांड:

गांधीजी के असहयोग आंदोलन के दौरान, मध्यप्रदेश में ‘जंगल सत्याग्रह’ शुरू हुआ। सिवनी जिले में 1930 में आदिवासियों ने ‘टुरिया सत्याग्रह’ में भाग लिया। पुलिस ने घास काट रहे सत्याग्रहियों पर गोलियां चला दीं, जिसमें गुड्डेबाई, रेनीबाई, देभोबाई और विरजू भाई जैसे कई ग्रामीण शहीद हो गए।

आजादी के बाद भी जारी संघर्ष:

1857 का संग्राम भले ही असफल रहा, लेकिन जनजातियों ने हार नहीं मानी। उन्होंने 1866 तक युद्ध जारी रखा। जब अंग्रेजों ने उन्हें सीधे दबा नहीं पाया, तो उन्होंने जनजातियों को ‘चोर’ और ‘लुटेरा’ घोषित कर उन्हें सामाजिक रूप से बदनाम करने का प्रयास किया। आज हमें इन वीरों के बलिदान और संघर्ष को याद करने की आवश्यकता है, क्योंकि इन्हीं के त्याग से हम स्वतंत्र भारत में सांस ले रहे हैं।

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