सेवा के वटवृक्ष से कम होती छाया… स्वार्थ की धूप झुलसाने लगी
समझ सको तो समझो- बात है खरी
अजय तिवारी
एक नगर में एक पौधा सेवा का रोपा गया था। हर दिन के साथ वह बड़ा होता गया। वटवृक्ष बन जरूरतमंदों को छाया देकर दूर-दूर तक वैभव पाने लगा, जो उसकी छाया में आता सुकून पाता। परायो को अपना मानकर गले लगाने वालों का कारबां बढ़ता गया। हर आह को , वाह में बदलने का जुनून उनके अंदर देखा गया। वक्त बदला वटवृक्ष के घने पत्ते झड़ने लगे, उससे चुभने वाली धूप छाया को कम करने लगी। वटवृक्ष खड़ा है, लेकिन उसकी सघनता कम होने लगी है, पत्ते आपस में टकराकर गिर रहे हैं। शाखाएं भी नजर आने लगी हैं। पत्तों के टकराहट की आवाज सुनाई देने लगी हैं, लगने लगा है वह आवाज कर्कश होने वाली है।
आज जिस शाखा पर जितने पत्ते हैं, वह खुद को बचाने का जतन कर रहे हैं। दूसरी डाली कमजोर हो रही है, इसकी परवाह नहीं। एक वक्त था जब पौधा वटवृक्ष बन रहा था, उसकी हिफाजत के अनगिनत हाथ जाली बने थे। बेहद मधुर संगीत का अहसास पेड़ की छाया कराती थी। परायों में परमात्मा के दर्शन करने का न केवल संदेश सुनाई देता था, बल्कि अपनाना पन भी हवा में तैरता था। वृक्ष के मालियों की लंबी फेहरिस्त है, सबका अपना समर्पण है।
वटवृक्ष के पत्तों से झांकती धूप से पूछों तो वह कहती हैं, अब वह दौर नहीं रहा जब पत्ते किसी को मेरी चुभन से बचाने के लिए कुछ भी कर गुजरने को तैयार होते थे। अब तक डाली की हिफाजत करने में ईमानदार कोशिश नहीं दिख रही है। कल की ही तो बात है, जब एक राहगीर वृक्ष से छाया की अपेक्षा लेकर आया था, पत्तों के ढेर ने उसे बता दिया, अब तक वटवृक्ष उस साधना के बल पर खड़ा है, जो उसे पौधे के रूप में रोपते समय शुरू हुई थी।
हर दिन कोई न कोई कील वृक्ष की किसी न किसी डाली में ठोक दी जाती है। जिस बागीचे में वृक्ष खड़ा है, उसके पास लगे दूसरे प्रकल्प खुशबू बिखेरते थे, आज भी बिखेररहे हैं, लेकिन खुशबू का भींगापन कम हो रहा है। परायो के लिए छाया का आग्रह करने वाले माली अब अपनो से छाया छीनने में लगे हैं… वटवृक्ष का यह दर्शन बहुत बड़ा दर्द है, जो कब चीत्कार में बदल जाए कहा नहीं जा सकता।