मेरी कलम

आपातकाल का काला अध्याय और सियासी बयानबाजी

भारत के लोकतंत्र का काला दिन, जब इंदिरा गांधी ने थोपा था आपातकाल। हर साल यह तारीख आती है और अपने साथ लाती है उस दौर की कड़वी यादें, साथ ही राजनीतिक गलियारों में गरमागरम बयानबाजी। आज ही के दिन, 1975 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने देश पर आपातकाल थोप दिया था, जिसने नागरिकों के मौलिक अधिकारों को निलंबित कर दिया और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट दिया।

यह दिन सिर्फ इतिहास का एक पन्ना नहीं, बल्कि भारतीय राजनीति के लिए एक ऐसा मील का पत्थर है, जिस पर आज भी वाद-विवाद होते हैं। सत्ता पक्ष और विपक्ष, दोनों ही इस दिन का इस्तेमाल अपनी-अपनी राजनीति चमकाने और विरोधियों पर निशाना साधने के लिए करते हैं।

सियासी बोल:

  • सत्ता पक्ष अक्सर आपातकाल को कांग्रेस की तानाशाही और लोकतंत्र विरोधी प्रवृत्ति के उदाहरण के रूप में पेश करता है। वे इसे “काला अध्याय” बताते हुए, आज की अपनी लोकतांत्रिक साख को मजबूत करने की कोशिश करते हैं।
  • वहीं, विपक्षी दल, विशेषकर कांग्रेस, इसे एक “गलती” स्वीकार करते हुए भी, वर्तमान सरकार पर “अघोषित आपातकाल” का आरोप लगाते हैं। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश, संस्थाओं के दुरुपयोग और विपक्ष की आवाज दबाने के मौजूदा आरोपों को आपातकाल से जोड़ते हैं।

इस दिन, टीवी डिबेट्स, सोशल मीडिया पोस्ट्स और राजनीतिक रैलियों में “संविधान खतरे में है,” “लोकतंत्र की हत्या,” “तानाशाही की वापसी” जैसे जुमले गूंजते हैं। यह सिर्फ इतिहास का स्मरण नहीं, बल्कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य पर टिप्पणियों का एक मंच बन जाता है। आपातकाल का दिन, भारतीय राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप और आत्म-मंथन, दोनों का अवसर प्रदान करता है, जहां अतीत के पाठ को वर्तमान की चुनौतियों से जोड़ा जाता है।
– भोपाल डॉट कॉम
– इमैज सोर्स: फेस बुक


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