विशेष: स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायक: मातंगिनी हाजरा, बाबू गेनू और रानी गाइदिनल्यू की गाथाएं

विशेष: स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम नायक: मातंगिनी हाजरा, बाबू गेनू और रानी गाइदिनल्यू की गाथाएं

भारत की आजादी का इतिहास सिर्फ कुछ महान नेताओं तक ही सीमित नहीं है। ऐसे अनगिनत गुमनाम नायक और वीरांगनाएँ हैं, जिन्होंने अपने जीवन का बलिदान दिया, लेकिन इतिहास के पन्नों में उन्हें वो पहचान नहीं मिली जिसके वे हकदार थे। उनकी कहानियाँ हमें बताती हैं कि आजादी का संघर्ष सिर्फ बड़े शहरों या प्रसिद्ध आंदोलनों तक सीमित नहीं था, बल्कि यह हर गाँव, हर घर और हर दिल में लड़ा गया था।


बंगाल की मातंगिनी हाजरा को ‘गांधी बूढ़ी’ के नाम से भी जाना जाता था। 73 साल की उम्र में उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हजारों लोगों के जुलूस का नेतृत्व किया। जब पुलिस ने उन पर गोली चलाई, तब भी उन्होंने तिरंगा नहीं छोड़ा और “वंदे मातरम्” का नारा लगाती रहीं, जब तक कि उनके शरीर में तीन गोलियाँ नहीं लगीं और उन्होंने अपनी अंतिम साँस नहीं ले ली। उनका यह बलिदान प्रतिरोध और देशभक्ति का एक सशक्त प्रतीक बन गया।


महाराष्ट्र के बाबू गेनू एक ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने विदेशी कपड़ों के बहिष्कार आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1930 में, जब एक ब्रिटिश व्यापारी विदेशी कपड़ों से भरे ट्रक को ले जा रहा था, तब बाबू गेनू ने ट्रक के सामने लेटकर उसे रोकने की कोशिश की। ब्रिटिश पुलिस के कहने पर भी ड्राइवर ने ट्रक नहीं रोका और बाबू गेनू को कुचलते हुए आगे बढ़ गया। उन्होंने भारतीय वस्त्र उद्योग को बचाने के लिए अपनी जान कुर्बान कर दी।


पूर्वोत्तर भारत की रानी गाइदिनल्यू की कहानी भी बेहद प्रेरणादायक है। जब वह सिर्फ 13 साल की थीं, तब उन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ मोर्चा संभाला। उन्होंने नागा लोगों के प्रतिरोध आंदोलन का नेतृत्व किया और गोरिल्ला युद्ध रणनीति का इस्तेमाल कर अंग्रेजों को चुनौती दी। उन्हें 14 साल तक जेल में रखा गया, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। आजादी के बाद ही उन्हें जेल से रिहा किया गया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उन्हें “पहाड़ों की रानी” कहा था।


तमिलनाडु के तिरुपुर कुमारन को “झंडा रक्षक” के रूप में याद किया जाता है। 1932 में, एक विरोध प्रदर्शन के दौरान ब्रिटिश पुलिस ने उन पर बेरहमी से लाठियाँ बरसाईं, लेकिन उन्होंने अपने हाथों में पकड़े तिरंगे को गिरने नहीं दिया। अंत में, उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी, लेकिन तिरंगे को मजबूती से थामे रखा। उनका यह बलिदान तिरंगे के सम्मान और देशभक्ति का एक अविस्मरणीय उदाहरण है।

ये कहानियाँ हमें बताती हैं कि आजादी का संघर्ष सिर्फ प्रसिद्ध चेहरों का ही नहीं था, बल्कि इसमें हर उस आम इंसान का योगदान था, जिसने अपनी जिंदगी को भारत माता के नाम कर दिया था।

संकलन: अजय तिवारी

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