मेरी कलम

सिंधी बंधुओं, बदलाव यूं नहीं होगा, अधिकार ऐसे नहीं मिलेंगे

सिंधी सम्मेलनों में चिंता बेमानी, यह बातों का नहीं कुछ करने का वक्त

अजय तिवारी, भोपाल
सिंधी समाज के अधिकारों के लिए आवाज बुलंद करने की बात लंबे समय से हो रही है। कभी राजधानी भोपाल में जमावड़ा होता है, कभी यहां-कभी वहां यानी देशभर में अलग-अलग संगठन ‘इंकबाल जिंदाबाद’ का दम भर चुके हैं। चाहे सियासी स्तर पर निपटने वाले मुद्दे हो या सामाजिक स्तर पर सुलझने वाले मुद्दे। आवाज नक्कार खाने में तूती की तरह बजकर कहीं और होने वाले सम्मेलनों तक चुप हो जाती है।
अभी हाल ही में एक अखिल भारतीय सिंधी संगठन ने गोवा में हुआ है। जहां देशभर के संगठन से जुड़े 200 प्रतिनिधि सियासी और सामाजिक मुद्दों को लेकर बैठे। कहा- भाषा को रोजगार से जोड़ने में सरकारें मदद करें। सिंधी पढ़ने और पढ़ाने वालों के कॅरियर को संभावनाओं से भरा जाए। सीधे तौर पर सरकारी स्तर पर चल रहीं अकादमियों पर सीधे तौर पर प्रहार नहीं किया गया। बहुत से सामाजिक आयोजनों में अकादमियां अर्थ की व्यवस्था करती हैं। भले ही वह छोटी हो, लेकिन अकादमी का नाम जुड़ने से आयोजन को बड़ा मान लिया जाता है। साहित्यकारों का कहना है अकादमियों का बजट इतना कम होता है कि वह सीधे तौर सिंधी शिक्षा को अपना दायित्व नहीं बना सकतीं। मौजूदा साहित्यकारों को प्रोत्साहित करने के लिए किताबों के लिए अनुदान, साहित्यधर्मिता के लिए पुरस्कार और सम्मान दे रही हैं।
राजनीतिक प्रतिनिधित्व की बात करें तो समाज के मतदाताओं ने कभी राजनीतिक दलों को तबज्जों देने के लिए मजबूर नहीं किया। जब भी प्रतिनिधित्व मांगा आग्रह के सलीके में। समाज यदि अपनी ताकत दिखाता यह सही है कोई राजनीतिक दल समाज की आवाज को अनसुना करता।
कभी तो बदलाव होगा
सिंधी पंचायतें समाज से अपने स्तर पर निपटने वाली समस्याओं को खत्म करने का आग्रह करती हैं। मसलन विवाह में देरी, विवाह में टूटन, स्टैज पर दुल्हा-दूल्हन का आशीर्वाद समाराहों में लेट पहुंचना, कॉकटेल पार्टी, तेरहवीं की रस्म को सीमित करने वाले विषयों को लेकर बैठकों में खूब हल्ला हो रहा है। लेकिन, कोई सुन नहीं रहा है। ऐसा लगता है शायद समाज के विशिष्ठजन सोचते होंगे कभी तो बदलाव आएगा।
सब संस्कृति को अपनाया
सिंधी के लुप्त होने की वजह घरों में बच्चों ने अपनी बोली में बात न करने को सबसे बड़ी वजह माना जा रहा है। कहा, जाता है सिंधी समाज विस्थापन के बाद जहां भी बसा वहां की संस्कृति में घुल मिल गया। वहां की भाषा, वहां तीज त्योहारों को सिंधियों के त्योहारों के साथ मनाने लगा। यह उसकी मजबूरी थी, क्योंकि वह कारोबारी समाज है। धंधे में आत्मीयता के रिश्ते कायम रखना सफलता की अहम शर्त होती है।
बात कल और आज की
भारत पाकिस्तान विभाजन के बाद हिन्दुस्तान आए हिन्दु सिंध वासियों के सामने रोजी रोटी का संकट था। उस समय कला साहित्य, संस्कृति और भाषा के लिए वह ध्यान दे पाते यह संभव नहीं था। लेकिन आज सिंधी समाज देश की अर्थ व्यवस्था में अहम योगदान दे रहा है। वह अपने बूते सिंधी विद्यालयों को संचालन, पाठ्य सामग्री का प्रकाशन करा सकता है। ऐसा नहीं कि प्रयास नहीं हो रहे हैं। हो रहे हैं, लेकिन उनमें व्यापकता नहीं है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *