मेरी कलम

International Widows Day : विधवा-विधुर की एक दशा वर्जनाएं सिर्फ विधवाओं को बनीं?

  • भूपेन्द्र शर्मा, वरिष्ठ पत्रकार

International Widows Day : वृंदावन को अब‌ लोग कृष्ण की नगरी के साथ, ‘विधवाओं का शहर’ के रूप में भी जानने लगे हैं। अकेले वृंदावन में लगभग 15 हजार विधवाएं हैं। भले ही ये विधवाएं कृष्ण की नगरी छोड़ने को अब राजी नहीं होती हैं, किंतु जो व्यक्ति वृंदावन जाकर उनकी मन:स्थिति से साक्षात्कार करता‌ है, उसे ही- ‘अतृप्त आत्मा से अपने जीवन की नैया डूब जाने के लिए प्रतीक्षारत उन विधवाओं के विडंबनापूर्ण हालात का आभास हो सकता है’। वृंदावन की विधवाओं के लिए सरकार ने शहर के बाहर एक हजार बिस्तरों वाला ‘कृष्ण कुटीर’, आश्रम तैयार किया है, जहां सारी अत्याधुनिक सुविधाएं हैं, किंतु वहां केवल 250 विधवाएं ही पहुंचीं। अधिकांश विधवाएं कृष्ण एवं वृंदावन को छोड़कर कहीं नहीं जाना चाहती हैं।

विश्व में लगभग 25.80 करोड़ एवं भारत में 7.5 करोड़ विधवाएं हैं। कुल महिला जनसंख्या में 10 प्रतिशत के साथ भारत विश्व में सबसे अधिक विधवा स्त्रियों वाला देश है। भारत में विधवाओं की स्थति का सच उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, रीति-रिवाज़, धर्म, वर्ग, परंपरा एवं काल के अनुसार भिन्न है। देश में विधवाएं निरंतर प्रथाओं, रीति, पितृसत्तात्मक परंपरा, धार्मिक नीति-नियम एवं निमित्त मात्र ‌सुविधा, सहायता, संरक्षण एवं सुस्त क़ानूनों के चलते समाज में व्याप्त विभिन्न प्रकार की पीड़ा-व्यथाओं में जीने को विवश हैं।

प्राचीन युग, काल में विधवाओं की देश-दुनिया में क्या स्थिति थी, इसका व्यावहारिकता से कोई वास्ता नहीं है। प्रमुख बात है कि स्वतंत्रता के बाद अब तक हम देश की करोड़ों विधवा स्त्रियों की पारिवारिक, सामाजिक, आर्थिक एवं मानसिक दशा को कितना सुधार सके हैं, इसका‌ आकलन किया जाए।
आज भी विधवाएं पारिवारिक वर्जनाएं,भेद, द्रोह, परित्याग एवं सामाजिक तंज, उपेक्षा, शोषण, दुराचार जैसी अमानवीय स्थितियों के साथ जीवन गुजारने के लिए लाचार हैं। देश में आज भी अधिकांशत: विधवाओं के विरासती अधिकारों का हनन होता है। पति की मृत्यु के बाद परिजनों द्वारा संपत्ति में उसके हिस्से को हड़पने के उपाय किए जाते हैं। वहीं समाज में भी उन्हें तमाम तरह के भेदभाव, कटाक्ष और दुराचरणों का सामना करना पड़ता है।

अध्ययन बताते हैं कि लगभग दस में से एक विधवा भिक्षु की भांति जीवन जी रही है। क्योंकि शासनिक एवं प्रशासनिक स्तर पर उनको मिलने वाली सहायताएं नाकाफी और औपचारिक हैं। यह भी सच है कि हर विधवा की क्षमता एवं पहुंच इस औपचारिक मदद को पाने लायक़ भी नहीं होती है।

वृंदावन, वाराणसी, प्रयागराज जैसे तीर्थ स्थलों पर जाकर देखिए, विधवाएं किस तरह का जीवन जी रही हैं। यहां सबसे अधिक संख्या पश्चिम बंगाल की महिलाओं की है। 54 साल से राजनीति में एवं 13 साल से मुख्यमंत्री रही ममता बनर्जी बताएंगी कि आखिर वहां की विधवाएं वृंदावन आने के लिए क्यों मजबूर होती हैं, शायद इस विषय पर सोचने की उन्हें फुर्सत ही नहीं मिलती होगी। उन्हें एक बार वृंदावन आकर देखना चाहिए, जहां 70 प्रतिशत विधवाएं पश्चिम बंगाल की ही हैं। काश! ममता बनर्जी ने इन विधवाओं के जीवन को बदलने के लिए भी कोई खेला किया होता, तो बड़ा पुण्य का काम होता।

निःसंदेह, विधवाओं को भारतीय कानून के अंतर्गत पुरुषों के समान अधिकार दिए गए हैं। विधवा कल्याण के लिए विभिन्न योजनाएं और कार्यक्रम प्रदान करने के लिए ‘महिला एवं बाल विकास मंत्रालय’ है। महिलाओं के अधिकारों की रक्षा और संवर्धन का कार्य करने के लिए ‘राष्ट्रीय महिला आयोग’ है। विधवाओं को सहायता और जानकारी पाने के लिए टोल-फ्री हेल्पलाइन है। विधवाओं को कानूनी सहायता, परामर्श एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए ‘गैर सरकारी संगठन’ कार्यरत हैं, किंतु सोचिए, यदि ये संसाधन, संगठन वर्षों से विधवाओं की सहायता में जुटे हैं, तो उन्हें अपना घर-बार छोड़कर अनजान, एकांत स्थलों पर पहुंच घुट-घुटकर जीने को क्यों विवश होना पड़ रहा‌ है?

देश में विधवाओं की स्थिति में सुधार के लिए पुनर्विवाह, आर्थिक सहायता, शिक्षा और स्वावलंबन के प्रयास चल रहे हैं, लेकिन सच यह है कि उनके लिए अभी तक ऐसी कोई कारगर योजनाएं नहीं आईं, जो उनकी विडंबनाओं का जड़ से खात्मा करें। जोश-खरोश के कोई प्रयास प्रदर्शित नहीं होते। स्वाभाविक है उस प्रकार के परिणाम दिखने तो चाहिए।

विधवाओं के लिए सरकार द्वारा एक अलग से आयोग बनाया जाना चाहिए, जिसके माध्यम से विधवाओं की आयु, योग्यता, विशेषज्ञता, पारिवारिक, आर्थिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए स्पेशल कोर्सेज का प्रशिक्षण देकर उन्हें पैरों पर खड़ा किया जाए। वहीं समाज में वैधव्यता संबंधी दुर्भावनाओं, विचारों, परंपराओं के प्रति निरंतर जागरूकता अभियान चलाया जाए।
शिक्षित विधवाओं को उनकी स्थिति के अनुसार रोजगार की गारंटी हो। उन्हें स्वयं के व्यवसाय के लिए सस्ते ऋण की सुविधा उपलब्ध हो। विधवा पुनर्विवाह के लिए युवाओं, पुरुषों को विशेष अवसर, सुविधा, सहायता जैसी योजनाएं तैयार की जाएं। निश्चित रूप से ऐसे प्रयास विधवाओं के अंधकारमय जीवन में रोशनी लाने का काम करेंगे।

विधवा एवं विधुर की स्थिति समान होती है, लेकिन वर्जनाएं सिर्फ स्त्री के लिए बन गईं। इतिहास भूलिए। अब ज्ञान, विज्ञान, मान ,सम्मान.. स्त्री हर सूरत में पुरुष समान है। फिर विधवा‌ और विधुर के लिए अलग-अलग अवधारणाएं क्यों होना चाहिए। ‘ कबीरदास ने कहा है- ‘जाके पैर ना फटी बिवाई। सो क्या जाने पीर पराई।।’ स्वाभाविक है, दुर्भाग्यवश युवावस्था में विधवा होने वाली किसी बहन-बेटी का दर्द हम क्या जानें? जानें भी कैसे?
खैर, नहीं जानें, कोई बात नहीं! किंतु कम से कम यह तो सोचें कि हम उसका दर्द बढ़ाएं नहीं… जो हम निरंतर करते आ‌ रहे हैं! आखिर यह क्रम कब खत्म होगा? यह समय है इस संदर्भ में सोचने का विचारने का और इस पर काम करने का…

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