दमोह: बुंदेला विद्रोह से शुरू हुआ था पहला स्वतंत्रता संग्राम। विशेष

दमोह: बुंदेला विद्रोह से शुरू हुआ था पहला स्वतंत्रता संग्राम। विशेष

दमोह. रंजीत अहिरवार. BDC News
भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का आगाज़ 1842 में दमोह जिले से हुआ था, जिसे ‘बुंदेला विद्रोह’ के नाम से जाना जाता है। इ1825 में मालगुजारों को बेदखल करने की अंग्रेजों की ‘बंदोबस्त’ नीति ने दमोह और सागर जिलों में व्यापक असंतोष फैला दिया था, जिसने इस विद्रोह की नींव रखी। हीरापुर के राजा हिरदेशाह ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया और जबलपुर में अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध की योजना बनाई।

राजा हिरदेशाह का संघर्ष और बलिदान:

राजा हिरदेशाह 500 सैनिकों के साथ दमोह से तेजगढ़ की ओर बढ़े, जहाँ 6 अक्टूबर 1942 को दमोह के तहसीलदार सादुल खां के नेतृत्व में ब्रिटिश सैनिक दस्ते से उनका युद्ध हुआ। इस युद्ध में राजा हिरदेशाह के 20 सैनिक शहीद हो गए। इसके बाद, हिरदेशाह अपने भाई सावंत के साथ भाग निकले, जिनकी गिरफ्तारी के लिए अंग्रेजों ने 5 हजार रुपये का इनाम घोषित किया। अंततः, 12 दिसंबर 1842 को उन्हें बंदी बना लिया गया और 15 अप्रैल 1843 तक यह विद्रोह शांत हो गया।

आजादी की लड़ाई में दमोह का योगदान:

दमोह के अधिवक्ताओं ने भी आजादी के आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने 1915 में एसोसिएशन की स्थापना की और होमरूल लीग की एक शाखा भी दमोह में खोली। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में गनकैरेज फैक्ट्री के कर्मचारी कपूरचंद, ज्ञानचंद श्रीवास्तव और महादेव प्रसाद गुप्ता जैसे कई सेनानियों ने बम बनाकर विद्रोह किया। उसी समय, तांगेवाले शेर खां ने रेलवे लाइन उखाड़कर अंग्रेजों के खिलाफ अपना रोष व्यक्त किया।

आजादी की खुशी में लगाया गया पीपल का पौधा, आज भी है बलिदान का गवाह


दमोह जिले में कटनी-दमोह रेलवे सेक्शन पर स्थित घटेरा रेलवे स्टेशन और ब्यारमा नदी के बीच, 15 अगस्त 1947 को देश की आजादी की खुशी में एक पीपल का पौधा लगाया गया था। ग्रामीणों ने उस दिन लकड़ी के सहारे तिरंगा फहराकर आजादी का जश्न मनाया था। गांव के बुजुर्ग बताते हैं कि उस दिन को याद करके आज भी उनकी आँखों में आँसू आ जाते हैं, जब पहली बार देश की आन-बान-शान, तिरंगा फहराया गया था।

विरासत को भूलती नई पीढ़ी:
ग्रामीणों के अनुसार, आजादी मिलने के बाद वर्षों तक यहाँ स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस पर ध्वजारोहण होता रहा, लेकिन अब यह परंपरा धीरे-धीरे समाप्त हो गई है। 1935 में जन्मे बुजुर्ग जगन्नाथ लोधी ने बताया कि आजादी की याद में लगाया गया वह पौधा आज विशाल पेड़ बन चुका है, लेकिन नई पीढ़ी ने इस परंपरा को भुला दिया है। आज सिर्फ उसकी यादें ही शेष हैं। यह पीपल का पेड़ उस ऐतिहासिक क्षण का मूक गवाह है, जब घटेरा के ग्रामीणों ने पहली बार आजादी का स्वाद चखा था।

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