मेरी कलम

चल बटोही जाने दे… मेरा बागबान ब्रह्मलोक में है… हिसाब होगा


लंबे समय बाद आया था वटवृक्ष के पास.. जिसकी जटाएं कभी मानव सेवा के लिए उलझती हुईं जमीन की ओर आती थीं और अपनी मजबूती का अहसास कराती थी। वह अब अपने-अपने हिसाब को लेकर एक-दूसरे से अलग होना चाहती थीं। बहुत कुछ घट रहा था, वह कुछ घटने वाला है कह रही थीं। ‘बागबान’ ब्रह्मलोक से सोच रहा होगा, यह बागीचा तो इसलिए नहीं सौंपा था मालियों को। फल-फूल का बाग दूसरों को समर्पित करने के लिए दिया था। सेवाभाव का बाग, स्वार्थ पूर्ति के लिए हरा-भरा नहीं किया था। बागीचे से जो हवाएं इन दिनों आ रही हैं, वह शीत भरे दिन होने के बाद भी ‘बागबान’ की सीख को झुलसाने वाली थीं। सोचा बात करूं वटवृक्ष से, लेकिन उसकी गहरी खामोशी देखकर हिम्मत नहीं हो रही थे।


अपनी विशालता के साथ वटवृक्ष उदास था, लेकिन निराश नहीं था, क्योंकि उसकी जड़ों में निस्वार्थ सेवा का जल और खाद था। विचारक ओशो की वह बात याद आ गई, जो आजकल की सेवा से जुड़ी है। ओशो ने कहा था ‘आप आज के माहौल में पाएंगे कि लोग सेवा के नाम पर केवल दिखावा कर रहे है। प्राचीन काल में सेवा का मतलब आत्म शुद्धि से था। ऐसा कार्य जहाँ पर आप अपना सर्वस्व मिटा देते थे। रह जाता था तो केवल सेवा भाव। और जब आप अपने को मिटाने के लिए तैयार हो जाते है तो उत्कृष्ट और निष्कृष्ट की बात ही समाप्त हो जाती है। आपका सेवा भाव अपने आप उत्कृष्ट हो जाता था। परन्तु आज के समय के परिपेक्ष्य में यह कहा जा सकता है कि सबसे निष्कृष्ट कार्य सेवा करना है क्योंकि इसे भी स्वार्थ वश पापमय बना देंगे। ‘


वट वृक्ष से संवाद
विचार मंथन के क्रम टूटा जब वटवृक्ष से संवाद की उम्मीद जगी। कहा, कहिए आप की विशालता, आपकी छाया का तो मैं कायल हूं। जब उदास होता था, तो आपके पास आकर कुछ लेकर जाता था। यहां लग रहा है, अब यहां ऐसा नहीं रहा। वटवृक्ष ने कहा, अपने मन की बात कहने का मतलब अपने आसपास रोपे गए निस्वार्थ फलदार पेड़ों से टूटे फलों के सौदों की बात अपने-आप सामने आ जाएगी। समय इस समय में भारी ही नहीं बहुत भारी है। कभी तेज तो कभी हल्की हवाएं बहुत कुछ हिलाकर रख देती हैं। जिनके भरोसे मैं छाया देने की बात करता था, वह वह भरोसेमंद नहीं रहे। है तो आसपास लेकिन उनके बीच की खटपट परेशान ही नहीं हैरान करने वाली है।
मेरे आसपास सूखी वनस्पतियां अपने आप जल रही हैं। कहा जाता है सूखी टहनियों से चिंगारी पैदा होती हैं, लेकिन यहां हरे-भरे पेड़ों की टहनियां से चिंगारियां निकल रही थीं। झुलसने लगा है बाग, आग तेज हुई तो क्या होगा। आग किसी को नहीं छोड़ेंगी।

सेवा पथ नहीं हो सकता
मैंने टोका, आपकी इस व्यथा का मतलब। सब कुछ तो वैसे ही चल रहा है, जैसा चलता था। नहीं बटोही, सेवा के पथ पर चलने वालों में कौन सही, कौन गलत की बहस सेवा पथ की मर्यादा के खिलाफ है। गलत, सही का सवाल खड़ा होने लगे तो समझ लीजिए वह रास्ता न तो सेवा का है, न उस पर चलने सेवाभारी। सेवादारी तो समाज की परिक्रमा नंगे पैर करता है। हर कांटे की चुभन उसे सुकून देती है चलने की। वह ‘सेवी’ ही नहीं हो सकता जो महंगे जूतों के साथ चल रहा हूं। वातानुकूलित कक्षों से जरूरतमंदों की सेवा का दंभ भर रहा हो। संवाद यहीं रहने दो नहीं तो ‘बागबान’ के बोल मेरे मुंह से निकल जाएंगे। लोहे के चने हैं… निकलेंगे।

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