मेरी कलम

ये ऑल इंडिया रेडियो है…आवाज जो जोड़ती है, दूरियां मिटाती है

23 जुलाई को, हम राष्ट्रीय प्रसारण दिवस मनाएंगे। यह वह दिन है जब भारत में रेडियो प्रसारण की शुरुआत हुई थी – एक ऐसी क्रांति जिसने सूचना, मनोरंजन और शिक्षा को हर घर तक पहुंचाया, और आज भी इसकी प्रासंगिकता उतनी ही महत्वपूर्ण है। यह सिर्फ आवाजों का एक माध्यम नहीं, बल्कि एक ऐसा साथी है जिसने दशकों से हमारे देश के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक ताने-बाने को बुना है।

रेडियो: एक ऐतिहासिक यात्रा

भारत में रेडियो का सफर 1920 के दशक में शुरू हुआ। 23 जुलाई, 1927 को इंडियन ब्रॉडकास्टिंग कंपनी (IBC) ने बंबई (अब मुंबई) से अपना पहला रेडियो प्रसारण किया, जिसने देश में एक नए युग की शुरुआत की। 1930 के दशक में ब्रिटिश सरकार ने इसे अपने नियंत्रण में ले लिया और 1936 में इसका नाम बदलकर ऑल इंडिया रेडियो (AIR) कर दिया, जिसे अब आकाशवाणी के नाम से जाना जाता है। आजादी के बाद, आकाशवाणी ने राष्ट्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह केवल समाचार और सरकारी घोषणाओं का माध्यम नहीं था, बल्कि इसने सांस्कृतिक आदान-प्रदान, क्षेत्रीय भाषाओं का प्रचार और ग्रामीण क्षेत्रों तक सूचना पहुंचाने का एक सशक्त मंच प्रदान किया। सूखे, बाढ़ या किसी भी आपदा के समय, रेडियो ही वह पहली आवाज होती थी जो लोगों तक पहुंचती थी, उन्हें चेतावनी देती थी और राहत कार्यों की जानकारी देती थी।


सूचना, मनोरंजन और शिक्षा का सशक्त माध्यम

रेडियो की सबसे बड़ी ताकत इसकी पहुंच है। बिजली या इंटरनेट के बिना भी, एक छोटे से ट्रांजिस्टर रेडियो के माध्यम से हजारों किलोमीटर दूर की आवाज सुनी जा सकती है। यही कारण है कि यह दूरदराज के गांवों और उन समुदायों के लिए जीवन रेखा बना हुआ है जहाँ अन्य मीडिया की पहुंच सीमित है।

  • सूचना: सुबह के समाचार बुलेटिन से लेकर कृषि संबंधी सलाह तक, रेडियो ने हमेशा लोगों को नवीनतम जानकारी से अवगत रखा है। यह आपातकालीन स्थितियों में सबसे पहले काम करने वाला माध्यम है, जो तुरंत चेतावनी और दिशा-निर्देश प्रसारित करता है।
  • मनोरंजन: विविध भारती, विविध प्रकार के संगीत, नाटक, कहानियाँ और हास्य कार्यक्रमों के साथ पीढ़ियों से हमारा मनोरंजन करती रही है। रेडियो ने कई कलाकारों, गायकों और कथावाचकों को एक मंच दिया है।
  • शिक्षा: शैक्षिक कार्यक्रम, चाहे वह कृषि पर हों, स्वास्थ्य पर हों या बच्चों के लिए हों, रेडियो के माध्यम से लाखों लोगों तक पहुंचे हैं, खासकर उन क्षेत्रों में जहां औपचारिक शिक्षा तक पहुंच कठिन है।

बदलते दौर में रेडियो की प्रासंगिकता

डिजिटल युग में, जब टेलीविजन, इंटरनेट और सोशल मीडिया का बोलबाला है, तो क्या रेडियो अपनी प्रासंगिकता खो रहा है? बिल्कुल नहीं। वास्तव में, रेडियो ने समय के साथ खुद को ढाला है और अपनी जगह बनाए रखी है।

  • एफएम क्रांति: 2000 के दशक में एफएम रेडियो की शुरुआत ने शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में रेडियो को एक नई जान दी। निजी एफएम चैनल, अपने जीवंत आरजे (रेडियो जॉकी) और समसामयिक संगीत के साथ, युवाओं के बीच बेहद लोकप्रिय हो गए।
  • पॉडकास्ट और ऑनलाइन रेडियो: इंटरनेट के माध्यम से अब लोग दुनिया भर के रेडियो स्टेशनों को सुन सकते हैं और पॉडकास्ट के रूप में अपनी पसंद के कार्यक्रम डाउनलोड कर सकते हैं। यह रेडियो को एक नया आयाम दे रहा है, जहां सामग्री की विविधता और उपलब्धता असीमित है।
  • स्थानीयकरण: सामुदायिक रेडियो स्टेशन ग्रामीण और स्थानीय स्तर पर अपनी पहचान बना रहे हैं। ये स्टेशन स्थानीय मुद्दों, परंपराओं और भाषाओं पर केंद्रित होते हैं, जिससे समुदाय के लोगों को अपनी आवाज उठाने का मौका मिलता है।

चुनौतियाँ और भविष्य

हालांकि रेडियो की प्रासंगिकता बनी हुई है, लेकिन इसे कुछ चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। बढ़ती डिजिटल साक्षरता और इंटरनेट कनेक्टिविटी के साथ, श्रोता अब अधिक विकल्प तलाश रहे हैं। ऐसे में, रेडियो को अपनी सामग्री को और अधिक आकर्षक, इंटरैक्टिव और व्यक्तिगत बनाने की आवश्यकता है। भविष्य में, रेडियो मल्टीमीडिया प्लेटफॉर्म के साथ और अधिक एकीकृत हो सकता है। दृश्य सामग्री, सोशल मीडिया इंटरैक्शन और पॉडकास्टिंग के साथ मिलकर यह एक शक्तिशाली, हाइब्रिड माध्यम बन सकता है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी ताकत – आवाज की सरलता और पहुंच – हमेशा बनी रहेगी।


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