मेरी कलम

संध्या काल.. वटवृक्ष की खामोशी.. नई सुबह से उम्मीद

आसमान की उड़ान भरने के बाद लौटे “पक्षियों” की हल्की होती आवाज


शाम का वक्त था… शहर वहीं था. वटवृक्ष शांत था, ठीक शाम की तरह। सुबह आसमान छूने की उड़ान भरने वाले “पक्षी” भी लौट आए थे। सोचा, कुछ वक्त रूककर वट वृक्ष से बात कर लूं। पूछ लूं.. दोपहरी में छाया की उम्मीद लेकर आने वाले कहां हैं.. जबाव खामोशी खुद दे रही थी। कह रही थी, संध्याकाल है। प्रकृति हो या जीवन शाम के वक्त ऐसा ही होता है। गहरी रात को पार कर सुबह के उजाले की उम्मीदभर साथ होती है। सुबह कैसी होगी, धूप की तपिश कैसी होगी, कितने छाया की उम्मीद लेकर फिर आएंगे वटवृक्ष के नीचे।
वटवृक्ष अपनी विशालता के साथ मौजूद था.. लेकिन आसपास लगे उन पेड़ों को देख उदास नजर आ रहा था, जो कभी अपने फलों से भूखों की भूख मिटाते थे। पौधे लगाकर बागवान ने जो उम्मीद अपने अनुयायियों से की थी, वे अब फलों को बेचने लगे हैं। कुछ फल सेवा के नाम पर जरूर बांटते हैं। मैं उस उम्मीद में खड़ा रहा, शायद वटवृक्ष कुछ कहे, लेकिन वह अपनी मर्यादा में बंधा नजर आया। गिरते पत्ते, एक-दूसरे से खुद को भारी समझने वाली शाखाएं। जमीन को छूकर खुद को मजबूत करना चाहती थीं।


सोचा वटवृक्ष बात नहीं करेगा.. सच भी तो है वटवृक्ष की प्रकृति भी खामोश रहकर छाया देने वाली है।.. छाया देने वाले वृक्ष के पत्ते उड़ रहे थे। तय है इधर-उधर गिरेंगे और सूख कर खत्म हो जाएंगे। प्रकृति का प्रताप है, वह वृक्षों का खाद-पानी देने का काम ईमानदारी से निभाती है। वृक्ष की खामोशी तो नहीं टूटी, लेकिन संध्या काल में कुछ पक्षियों की हल्की आवाज कह रही थी, हो सकता है हमारा ठिकाना भी नहीं बन सके यह वट वृक्ष। वटवृक्ष से ज्यादा वृक्ष के आसपास लगे फल देने वाले पेड़ों की चिंता ज्यादा हो रही थी। उनकी रखवाली के लिए भी नुमाइंदे तैनात थे, जो कोई पेड़ों से फल तोड़कर मुफ्त भूख न बुझा सके, यह देख रहे थे।


सोचा अब रात हो चली है.. किसी दिन सुबह होने पर आकर वटवृक्ष की छाया में बैठकर देखूंगा। कितनी छाया मुफ्त है, कितनी मौल चुकाकर मिल पा रही है। जो भी हजारों सेवाभावियों के प्रवाह का गवाह है वटवृक्ष। बहुत अच्छे से जानता है वह अब किस तरह की हवाएं और शाखाएं पत्तों को गिराकर छाया विहीन बना रही हैं उसे।

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