भोपाल

किस तरह काम कर रहा सिस्टम

आशा तिवारी
सिस्टम किस तरह काम कर रहा है, इसकी बानगी 16 अप्रैल को कोरोना टेस्ट होता है, पेशेंट कैसा है इसकी जानकारी 20 अप्रैल को ली जाती है। महज ड‌्यूटी निभाई जाती है, न तो बात करने वाला डॉक्टर था, न स्वास्थ्य विभाग को बंदा। केवल उसको कहना था जब तक आपकी रिपोर्ट निगेटिव न आ जाए। घर में रहें और आपके घर में कोई और तो पॉजिटिव नहीं है। सभी मरीज से दूर रहे। 16 से 20 अप्रैल तक रामभरोसे था पेशेंट। जिस तरह का वार्तालाप हुआ, उससे आगे भी उसे राम भरोसे ही छोड़ दिया गया… अखबारों में पढ़ा कि पॉजिटिव मरीज यदि घर में है तो मेडिकल किट सरकार देगी। किट को तो पता नहीं।
ऐसे हालातों में सक्षम तो निजी स्तर पर चिकित्सकीय सलाह ले सकता है, लेकिन उनका कौन जो प्राइवेट तक नहीं पहुंच सकते। सिस्टम इस तरह काम करता है, जैसे आम दिनों में सरकारी फाइल चलती है, जो हो जाएगा क्या जल्दी है। कल आना, कल पहुंचो परसों आना। मैं यह नहीं नकारता कि हालात असामान्य है, लेकिन यह जरूर कहूंगा काम भी असामान्य होना चाहिए।
पहली लहर में मरीज मिलने पर स्वास्थ्य विभाग का पर्चा लगता था। पेशेंट को अस्पताल ले जाया जाता था, परिजन घर में ही रहें, इसके कंटेनमेंट जोन बनाए जाते थे। कोरोना ने दूसरी लहर से काफी वक्त दिया था। सरकार ने यह मान लिया कोरोना बीते दिनों की बात हो गई। बाजार खुले, स्कूल पूरी तरह खुलने ही वाले थे सब कुछ सामान्य था। पाबंदियां क्या हटीं, मास्क लगवाओ न लगाओ मेरी मर्जी…मेरी मर्जी हो गया। दूरियां खत्म हो गईं।
भीड़ जुटने वाली राजनीतिक जगहों पर जाना नहीं चाहता। राजनीति पर बात करना बेमानी लगता है, लेकिन लोकतंत्र में राजनीति ही जिम्मेदारी तय करती है। इसलिए उम्मीद करता हूं, आईना के सामने जरूर जिम्मेदार खड़े होंगे। मौजूदा हालातों में ऐसा लगता है, पिछले हालातों से सबक सीखा नहीं, प्यास लगने पर कुआं खोदने जुट गए है, कुआं खुदने तक जिंदा रहेंगे या नहीं पता ही नहीं।
चलो फिर मुद्दे पर आता हूं, क्यों जो लिखा वह तो सब कह रहे हैं, अंदाज अपने-अपने हैं। सरकार के अपने, विरोधियों के अपने, मीडिया के अपने। तस्वीरों से नकारात्मक, सकारात्मक और केवल आलोचना वाली खबरें निकाली जा रही हैं। दवा, जांच और इलाज की चिंता जैसे भी हो रही है, की जा रही है। मौत के बाद विश्रामघाट, कब्रिस्तान तक पहुंचाने का सफर किसी भी परिजन के लिए कितना दुखद होता है। सभी कभी न कभी दो चार जरूर होता है। विश्रामघाट तक ले जाने के लिए वाहन न मिलना, लकड़ी कम पड़ना और अंतिम संस्कार के लिए कतार। इसकी चिंता चाहे राजनीतिक स्वार्थ के लिए हो, लेकिन बहुत से लोगों की मदद करने जज्बा तो है।
समाजसेवा की अपनी मर्यादा है। दान की एक परिभाषा है। दोनों में गोपनीयता को भाव है, जो अब खत्म हो गया है। समाजसेवा करते हुए दान देते हुए भले ही किसी विवशता उजागर हो तस्वीरों में नुमायां होती है, ज्यादातर बार कराई भी जाती है। मीडिया कभी इसे अच्छी पहल कहता है तो कभी पब्लिसिटी।
यह वक्त बहुत कुछ सिखाने वाला है, सरकार, समाजसेवा, मीडिया आदि-आदि के न जाने कितने चेहरे उजागर हुए हैं। कोरोना समाजवाद की राह चला है, कौन छोटा-कौन बढ़ा, कौन अमीर-कौन गरीब। सब अपने-अपने हिसाब से ठीक हो रहे हैं। बहुत कठिन काल है… कहा जाता है कि कठिन काल में अपने परिजन अपने शासक को परखा जाता है।

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